Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
२६५
ननु चात्र भिन्नार्थत्वे सांध्ये विभिन्नशद्वत्वहेतोरन्यथानुपपत्तिरसिद्धेति न मंतव्यं, साध्यनिवृत्तौ साधननिवृत्तेरत्र भावात् । भिन्नार्थत्वं हि व्यापकं वाजिवारणशद्वयोर्विभिन्नयोरस्ति गोशद्धे वाभिनेपि तदस्ति विभिन्नशद्वत्वं तद्व्याप्यं साधनं विभिन्नार्थ एव साध्यस्ति नोभिन्नार्थत्वे, ततोन्यथानुपपत्तिरस्त्येव हेतोः ।
तत्वार्थचिन्तामणिः
यहां कोई प्रतिवादी यों अवधारण मान बैठा है कि इस अनुमान प्रयोग में भिन्न भिन्न अपने को साध्य करने पर विभिन्न शद्वपन हेतु की अपने साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति असिद्ध है । यानी साध्यके नहीं ठहरने पर हेतुका नहीं ठहरनारूप व्याप्ति नहीं बन चुकी है । इस पर आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाचिये । क्योंकि साध्यकी निवृत्ति होनेपर साधन की निवृत्ति हो जानेका यहां सद्भाव है । विशेष स्वरूप करके भिन्न हो रहे वाजी और वारण शद्वों में व्यापक हो रहा भिन्न भिन्न अर्थपना साध्य वर्त रहा है । अथवा सदृश स्वरूप करके भिन्न हो रहे ग्यारह गो राहों में भी वह वाणी आदि भिन्न अर्थपना साध्य विद्यमान है । अतः वह साध्यका व्याप्य हो रहा विभिन्नशद्वपना हेतु तो विभिन्न अर्थरूप साध्यके होनेपर ही ठहर सकता है । अभिन्न अर्थपना होनेपर नहीं ठहर सकता है । तिस कारणसे हेतुकी अन्यथानुपपत्ति है ही । समीचीन व्याप्तिको रखनेवाला हेतु अवश्य साध्यको साथ देता है । नाना अर्थोका उल्लंघन कर एक अर्थकी अभिमुखता से रूढ करानेवाला होने के कारण भी यह नय समभिरूढ कहा जाता है । गौ यह शद्व, वचन, दिशा, जल, पशु, भूमि, रोम, वज्र, आकाश, बाण, किरण, दृष्टि इन ग्यारह अर्थोंमें वर्तमान हो रहा सींग, सास्नावाले पशु रूढ हो रहा है । जितने शद्ब होते हैं, उतने अर्थ होते हैं । इसी प्रकार दूसरा उपनियम यों भी है कि जितने अर्थ होते हैं, उतने शद्व भी होते हैं । ग्यारह अर्थीको कहनेवाले गो शद्व भी ग्यारह हैं । गकारके उत्तरवर्ती ओकार इस प्रकार समान
hi अनुपूर्वी होने के कारण एकके सदृश शब्दोंको व्यवहार में एक कह दिया गया है । अतः अनेक गोशों द्वारा ही अनेक वाणी आदि अर्थोकी इप्ति होती है । इस नयका अर्थकी ओर लक्ष्य जानेपर अपने अपने स्वरूपों में सम्पूर्ण पदार्थों का आरूढ रहना भी समभिरूढ नय द्वारा नीत कर किया जाता है । जैसे कि आप कहां रहते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर मिलता है कि, अपनेमें आप रहता है । निश्चयनयसे सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने स्वरूपमें हैं ।
-
34
संप्रत्येवंभूतं नयं व्याचष्टे ।
अब श्री विद्यानन्द आचार्य इस अवसरपर सातवें एवंभूत नयका व्याख्यान करते हैं ।
तत्क्रियापरिणामोर्थस्तथैवेति विनिश्चयात् ।
एवंभूतेन नीयेत क्रियांतरपराङ्मुखः ॥ ७८ ॥