Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वायचिन्तामणिः
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उन दोनों नैगम संग्रहनोंसे यहां अभीष्ट हो रही सप्तमंगी अनेक भेदों करके कह लेनी चाहिये । यानी नैगमनयकी अपेक्षा संकल्पित इन्द्रका अस्तित्व मानकर और संग्रहनयसे उसका नास्तित्व अभिप्रेत कर सात मंगोंका समाहार एक नयसप्तभंगी बना लेना चाहिये । इसी प्रकार अन्य भी विभाग कर देनेसे सप्तमंगीके अनेक भेद हो जाते हैं।
नैगमव्यवहाराभ्यां विरुद्धाभ्यां तथैव सा ।
सा नैगमर्जुसूत्राभ्यां तादृग्भ्यामविगानतः ॥ ९१ ॥
तिस ही प्रकार विरुद्ध सरीखे हो रहे अत एव अस्तित्व और नास्तित्वके प्रयोजक बन रहे नैगम और व्यवहारमयसे भी वह सप्तभंगी रच लेनी चाहिये । तथा तिन्हीके सदृश विरुद्ध हो रहे नैगम और ऋजुसूत्र दो नयोंसे अस्तित्व, नास्तित्वको, कल्पित कर अनिन्दित मार्गसे वह सप्तमंगी बमा लेनी चाहिये।
सा शद्वानिगमादन्यायुक्तात् समभिरूढतः। - सैवंभूताच सा ज्ञेया विधानप्रतिषेधगा ॥ ९२ ॥
एवं वही सप्तभंगी नैगमसे और शद्वनयसे विधि और प्रतिषेधको प्राप्त हो रही बन गयी है। तथा नैगम और अन्य, मिन्न, आदि शब्दों करके कहे जा चुके सममिरूढ नयसे भी विधि और निषेधको प्राप्त हो रही वह एक न्यारी सप्तभंगी है । तथा विरुद्ध हो रहे नैगम और एवंभूतसे विधान करना और निषेध करना धर्मोको ले रही वह सप्तभंगी पृथक् समझनी चाहिये ।
संग्रहादेश्र शेषेण प्रतिपक्षेण गम्यताम् ।
तथैव व्यापिनी सप्तभंगी नयविदां मता ॥ ९३॥
जैसे नैगमकी अपेक्षा अस्तित्वको रख कर शेष छह नयोंकी अपेक्षासे नास्तित्वको रखले हुये छह सप्तमंगियां बनायी गयी है, इसी प्रकार संग्रह आदि नयोंसे अस्तित्व को व्यवस्थापित कर शेष उत्तरवर्ती प्रतिपक्षी नयों करके भी तिस ही प्रकार व्याप्त हो रहीं सप्तभंगीयां यों समझ लेनी चाहिये । ये सभी सप्तमंगिया नयवेत्ता विद्वानोंके यहां ठीक मान ली गयी हैं।
विशेषैरुत्तरैः सर्वैर्नयानामुदितात्मनाम् ।
परस्परविरुद्धार्थेद्ववृत्तेर्यथापथम् ॥ ९४ ॥
पूर्व पूर्व में जिनके स्वरूप कह दिये गये है, ऐसी सम्पूर्ण नयों की उत्तर उत्तरवर्ती विशेष हो रही सम्पूर्ण नयों के साथ सप्तगियां बन जाती हैं। परस्परमें विरुद्ध सरीखे अर्थीको विषय 36