Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
शब्दात्पर्यायभेदेनाभिन्नमर्थमभीप्सिनः। न स्यात्समभिरूढोपि महार्थस्तद्विपर्ययः ॥ ८॥
भिन्न भिन्न पर्यायोंको ग्रहण करनेवाले पर्याय वाचक शब्दोंके भेद होनेपर फिर भी उस करके अभिन्न अर्थको ही अभीष्ट करनेवाले शब्दनयसे समभिरुढ नय भी उस शब्दसे विपरीत प्रकार का है। अर्थात्-शब्दनय तो एकलिंगवाळे या समान वचनवाले पर्यायवाचक शब्दोंके भेद होनेपर भी एक ही अभिन्न अर्थको जानता था। किन्तु यह समभिरूढ नय पर्यायवाचक शब्दोंके भेदसे भिन्न भिन्न स्वरूपोंकरके कहे जा रहे अर्थोको विषय करता है।
समभिरूढादेवंभूतो भूमविषय इति चाकूतमपास्यति ।
समभिरूढ नयसे एवंभूत नयका विषय अधिक है, इस प्रकारके कुचोद्यका आचार्य महाराज पृथक्कार करें देते हैं।
क्रियाभेदेपि चाभिन्नमर्थमभ्युपगच्छतः।
नैवंभूतः प्रभूतार्थो नयः समभिरूढतः ॥ ८९ ॥
शद्वोंमें पडी हुई भिन्न भिन्न धातुओंकी क्रियाओंके भेद होनेपर भी उसी अभिन्न अर्थको स्वीकार कर रहे समभिरूढ नयसे एवंभूत नय प्रचुरविषयवाला नहीं है । एवंभूत नय तो पढाते समय ही पाठक कहेगा, किन्तु समभिरूढ नय खाते, पीते, पूजते समय भी अध्यापकको पाठक समझता रहता है । इस प्रकार नयोंके लक्षण और नयामासोंका विवेक तथा नयोंके विषयका अल्प बहुस्वपन अथवा पूर्ववर्ती उत्तरवर्तीपनका व्याख्यान यहांतक किया जा चुका है । अब नयोंके दूसरे प्रकरणका प्रारम्भ किया जाता है ।
कथं पुनर्नयवाक्यप्रवृत्तिरित्याह।
नय सप्तमीको बनाने के लिये शिष्यका प्रश्न है कि महाराज फिर यह बताओ कि नयों के सप्तभंगी वाक्य मला कैसे प्रवर्तते हैं ? इस प्रकार शिष्यकी तीव्र जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
नैगमाप्रतिकूल्येन न संग्रहः प्रवर्तते ।
ताभ्यां वाच्यमिहाभीष्टा सप्तभंगीविभागतः ॥ ९०॥ संग्रहनय तो नैगमके अप्रतिकूलपनकरके नहीं प्रवर्तता है । अर्थात्-संग्रहकी प्रवृत्ति नैगमनयकी प्रतिकूलतासे है । नैगम यदि अस्तिको कहेगा तो संग्रह नास्ति धर्मको उकसायगा । अतः