Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
गच्छामीति व्यवहारोपलब्धेः । भाविनि भूतवदुपचारात्तथा व्यवहारः तंदुकेष्वोदनव्यवहारवदिति चेन्न, प्रस्थादिसंकल्प्यस्य तदानुभूयमानत्वेन भावित्वाभावात् प्रस्थादिपरिणामाभिमुखस्य काष्ठस्य प्रस्थादित्वेन भावित्वात् तत्र तदुपचारस्य प्रसिद्धिः । प्रस्थादिभावाभावयोस्तु तत्संकल्पस्य व्यापिनोनुपचरितत्वात् । न च तद्व्यवहारो मुख्य एवेति ।
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इस प्रकार प्रत्येक पर्याय में बहुत प्रकारसे सप्तभंगियां बना लेनी चाहिये । एक वस्तु अविरोध करके विधि और प्रतिषेध आदिकी कल्पना करना आचार्योंने सप्तभंगी कही है । पहिले प्रकरणों में कही गयी प्रमाण सप्तभंगीके समान यह नयसप्तभंगी भी अनेक प्रकारसे जोड लेनी चाहिये । प्रश्नके वशसे एक वस्तु या वस्तुके अंशमें विधि और प्रतिषेधकी कल्पना करना यह सप्तभंगीका लक्षण निर्दोष है । लक्ष्य के एकदेशमें रहनेवाले अन्याप्तिदोषकी इसमें सम्भावना नहीं है और यह सप्तभंगी अतिव्याप्ति दोषसे युक्त नहीं है, तथा असम्भव दोषवाली मी नहीं है । क्योंकि तिस प्रकार प्रतीतियों से वस्तुमें सातों भंग सम्भव जाते हैं। उसी निर्णयको यहां इस प्रकार समझ लेना चाहिये कि सबसे पहिले केवळ संकल्पको ही ग्रहण करनेवाले नैगमनयका आश्रय लेनेसे विधिकी कल्पना करना। क्योंकि प्रस्थ, इन्द्रप्रतिमा, आदिके केवल संकल्पस्वरूप जो प्रस्थ आदिक हैं उनको earth लिये जाता हूं, इस प्रकार व्यवहार हो रहा देखा जाता है । अर्थात् - प्रस्थका छाना नहीं है । किन्तु प्रस्थ के केवळ संकल्पका लाना है । अढैयाके चतुर्थांश अन्नको समालेनेवाले काष्ठनिर्मित पात्रको प्रस्थ कहते हैं । इस प्रस्थ के संकल्पकी नैगमनय के द्वारा विधि की गयी है । यदि कोई यों कहे कि भविष्य में होनेवाले पदार्थ में द्रव्यनिक्षेपसे हो चुके पदार्थ के समान यहां उपचारसे तिस प्रकारका व्यवहार कर लिया जाता है, जैसे कि कच्चे चावलोंमें पके भातका व्यवहार हो जाता है । इसपर आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि उस नैगमनयकी प्रवृत्तिके अवसरपर प्रस्थ आदि के संकल्पका ही या संकल्पको प्राप्त हो रहे प्रस्थ आदिका ही अनुभव किया जा रहा है। इस कारण उस संकल्पको भविष्यकाळ सम्बन्धपिनेका अभाव है । प्रस्थ इन्द्र आदिका संकल्प तो वर्तमान कालमें विद्यमान है, संकल्प विचारा भविष्य में होनेवाला नहीं है। प्रस्थ, प्रतिमा, आदिक पर्यायस्वरूप होनेके लिये अभिमुख हो रहे काठको प्रस्थ, प्रतिमा, आदिकपने करके भविष्यकाळ सम्बधीपना है । अतः उस काष्ठमें उन प्रस्थ आदिपनेके उपचारकी अच्छी सिद्धि हो जाती है । किन्तु नैगम नयका विषय तो मुख्य ही है । क्योंकि प्रस्थ आदिके सद्भाव होनेपर या उनका अभाव होनेपर दोनों दशामें व्याप रहे उन प्रस्थ आदि सम्बन्धी संकल्पको तो अनुपचरितपना है । किन्तु द्रव्यनिक्षेपकी आड लेकर किया गया भावी में भूतपन वर्तमानपन के समान उसका व्यवहार तो मुख्य नहीं है । अर्थात् - द्रव्यनिक्षेपका विषय तो वर्तमान कालमें नहीं विद्यमान है । किन्तु नैगमका विषय संकल्प मुख्य होकर इस कालमें वर्त रहा है । अतः नैगम
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