Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वायचिन्तामणिः
अनुमान प्रमाणोंसे बाधित है । कृत शब्द या कृतक शब्द, कर्म, कार्मण, देव, देवता, जानाति, बिजानाति, आदिमें शब्दों के भेद होनेपर भी अर्थभेद नहीं दीखता है । अब आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना, क्योंकि काल आदिके योगसे भिन्न हो रहे शब्द के अभिन्न अर्थपनेको ग्रहण करनेवाले प्रमाण ( ज्ञान ) की उनका भिन्न भिन्न अर्थको प्रहण करनेवाले प्रमाण करके बांधा प्राप्त हो जाती है । अर्थात्-काल आदिके भेद होनेपर पर भिन्न भिन्न अर्थको ग्रहण करनेवाला प्रमाण उस अभिन्न अर्थग्राही ज्ञानका बाधक है । जो स्वयं बाध्य होकर मर चुका है, वह दूसरोंका बाधक क्या होगा ? किये गये पदार्थको कृत कहते हैं। अपनी उत्पत्तिमें अन्य कारणोंके व्यापार की अपेक्षाको रखनेवाले भावको कृतक कहा गया है । स्वार्थिक' क प्रत्ययका कथन करना तिस प्रकारके शब्दोंकी प्रसिद्धि अनुसार समझनेवाले प्रति व्यर्थ नहीं है । दूसरे ढंगोंसे काघव कर उच्चारण करनेसे उस वादीको संतोष नहीं हो सकता है । देवकी अपेक्षा देवता शब्द अधिक अर्थको लिये हुये है ।
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समभिरूढमिदानीं व्याचष्टे ।
शब्दयका विस्तार के साथ वर्णन कर श्री विद्यानन्दस्वामी अब क्रमप्राप्त समभिरूढ नयका व्याख्यान करते हैं ।
पर्यायशब्दभेदेन भिन्नार्थस्याधिरोहणात् ।
नयः समभिरूढः स्यात् पूर्ववच्चास्य निश्चयः ॥ ७६ ॥
पर्यायवाची अनेक शब्दोंके भेद करके भिन्न भिन्न अर्थका अधिरोह हो जानेसे यह नय समभिरूढ हो जाता है । पूर्वके समान इसका निश्चय कर लेना चाहिये । अर्थात् - व्यवहार नयकी अपेक्षा शब्द नयद्वारा गृहीत अर्थमें जैसे मिन अर्थपना साधा है, उसी प्रकार शब्दनयसे समभिरूढ नपके भिन्न होने का विचार कर लेना चाहिये ।
विश्वदृश्वा सर्वदृश्वेति पर्यायभेदेपि शद्बोऽभिन्नार्थमभिप्रेति भविता भविष्यतीति च कालभेदाभिमननात् । क्रियते विधीयते करोति विदधाति पुष्यस्तिष्यः तारकोडुः आपो वाः अंभः सळिऴमित्यादिपर्यायभेदेपि चाभिन्नमर्थ शद्बो मन्यते कारकादिभेदादेवार्थभेदाभिमननात् । समभिरूढः पुनः पर्यायभेदेपि भिन्नार्थानभित्रैति । कथं ?
विश्वको देख चुका, सबको देख चुका, या जल, सकिल, वारि अथवा स्त्री, योषित्, अबला, नारी, आदिक पर्यायवाची शब्दोंके भेद होनेपर शद्व नय इनके अर्थको अभिन्न मान रहा है । भविता ( लुट् ) और भविष्यति ( लृट्) इस प्रकार पर्यायभेद होनेपर भी कालका भेद नहीं होनेसे शद्वय दोनोंका एक ही अर्थ मान बैठा है । तथा किया जाता है, विधान किया जाता