Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
है। इन दोनोंका अर्थ एक है शद्वनय की अपेक्षा तो करता है, और विधान करता है दोनोंका अर्थ एक ही है । पुल्लिंग पुष्य और तिष्यका एक ही पुष्य नक्षत्र अर्थ है । स्त्रीलिंग तारका और उडुका सामान्य नक्षत्र अर्थ अमिन है । स्त्रीलिंग अप और वार शद्वका एक ही जल अर्थ है । नपुं. सकलिंग अम्भस् और सलिल शब्दोंका वही पानी एक अर्थ है । इत्यादिक पर्यायोंके भेद होनेपर भी शद्वनय तो अभिन्न अर्थोको मान रहा है। शद्वनय की मनीषा, कारक, लिंग, वचन, आदिका भेद हो जानेसे ही अर्थका भेद मानने की है । लिंग या कारकके अभेद होनेपर पर्यायवाची अनेक शब्दोंका अर्थ एक ही पडता है । किन्तु फिर यह समभिरूढ नय तो पर्यायवाची शब्दोंका भेद होनेपर मी भिन्न भिन्न अर्थोको अभिलषता है। विश्वदृश्वाका अर्थ न्यारा है। और सर्वदृश्वाका अर्थ न्यारा है । सर्व कहनेसे कुछ भी शेष नहीं रहता है । तथा करोति और विदधातिका अर्थ न्यारा है असाधारण कार्यको बढिया करनेमें “ विदधाति " आता है। अम्भस् और सलिलका अर्थ भी भिन्न भिन्न जल है। ये सब कैसे भिन्न हैं ! इस बातको स्वयं ग्रन्थकार वार्तिक द्वारा प्रतिपादन करते हैं।
इन्द्रः पुरंदरः शक्र इत्याद्या भिन्नगोचराः।
शद्वा विभिन्नशद्वत्वाद्वाजिवारणशद्ववत् ॥ ७७ ॥
सौधर्म इन्द्रके वाचक इन्द्र, पुरन्दर, शक्र, शचीपति, सहस्राक्ष इत्यादिक शब्द ( पक्ष ) भिन्न भिन्न अर्थको विषय कर रहे हैं ( साध्य ) विविध प्रकारके भिन्न शब्द होनेसे ( हेतु ) जैसे कि पक्षी या घोडेको कहनेवाला " वाजी" शब्द और हाथीको कहनेवाला न्यारा " वारण" शब्द भिन्न भिन्न अर्थोको कह रहा है । ( अन्वयदृष्टान्त ) । अर्थात्-शब्दभेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिये । पर्यायवाची शब्द न्यारे न्यारे अर्थोंमें आरूढ हो रहे हैं । हां, अनेक प्रकारकी ऋद्धि, सम्पत्ति, विभूति, देवांगनायें आदिका उत्कट ऐश्वर्य होनेसे वह सौधर्म नामका जीव इन्द्र कहलाता है । तथा पौराणिक मत अनुसार किसी नगरीका विदारण करनेसे वही जीव पुरन्दर कहा गया है। तथा जम्बूद्वीपको उलटनेकी शक्तिका धारण करनेसे वही जीव " शक" इस नामको पा गया है। और इन्द्राणीका स्वामी होनेसे शचीपति कहा गया है । जन्मे हुये जिनेन्द्र भगवान्को दो नेत्रोंसे देखता हुआ तृप्तिको नहीं प्राप्तिकर उनके दर्शन के लिये हजार नेत्रोंको बना लेनेकी अपेक्षा सहास्राक्ष कहा गया है । इसी प्रकार अन्य पर्यायवाची शब्दोंके भी भिन्न भिन्न अर्थ लगा लेना चाहिये । संकेतग्रहणके अवसरपर या भिन्न भिन्न धातु या प्रत्ययोंसे शब्दसिद्धि करते समय शब्दोंकी न्यारे न्यारे अर्थोमें रूढि हो रही अनुभवमें आ रही है । तभी तो " हन् " धातुका गति अर्थ होते हुये भी दूषित समझा जाता है। उपकारी चन्द्रमाका वर्णन करते समय "कलंकलाञ्छन" शब्दका प्रयोग निन्दनीय है।