Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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देते हैं । उपसर्ग किसी नवीन अर्थके वाचक नहीं हैं। इस प्रकार उनका कहना भी प्रशंसनीय नहीं है । क्योंकि यों तो ठहरता है और प्रस्थान ( गमन ) करता है, इन प्रयोगों में भी स्थितिक्रिया और गमनक्रिया के अभेद हो जानेका प्रसंग होगा । तिप्त कारणसे यह सिद्धान्त करना चाहिये कि काल, कारक, संख्या, आदिके मेद हो जानेसे शब्दों का अर्थ भिन्न ही हो जाता है । अन्यथा यानी ऐसा नहीं मानकर दूसरे प्रकारसे मानोगे तो अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात् - पण्डितमन्य, पण्डितं - मन्य या देवानां प्रिय, देवप्रिय, आदिमें भी भेद नहीं हो सकेगा । किन्तु ऐसे स्थलोंपर भिन्न भिन्न अर्थ है । इस बातको शद्वनय प्रकाशित कर देता है, यह समझो।
तद्भेदेप्यर्थाभेदे दूषणांतरं च दर्शयति ।
उस शद्वके भेद होनेपर भी यदि अर्थका भेद नहीं माना जायगा तो अन्य भी अनेक दूषण आते हैं । इस रहस्यको श्री विद्यानन्द आचार्य दिखलाते हैं ।
तथा कालादिनानात्वकल्पनं निःप्रयोजनम् । सिद्धं कालादि कार्यस्येष्टस्य तत्त्वतः ॥ ७३ ॥
तिस प्रकार माननेपर यह बडा दूषण आता है कि लकारोंमें या कृदन्तमें अथवा लौकिक वाक्य प्रयोगों में काल, संख्या आदिके नानापनकी कल्पना करनेका प्रयोजन कुछ नहीं सिद्ध हो पाता है | एक ही काल या एक ही उपसर्ग आदि करके वास्तविकरूपसे अभीष्ट कार्यकी सिद्धि हो जायगी ।
कालादिभेदादर्थस्य भेदोस्त्विति हि तत्परिकल्पनं प्रयोजनवन्नान्यथा स च नास्तीति निःप्रयोजनमेव तत् । किं चः
कारण कि काल, कारक, लिंग आदिके भेदसे यदि अर्थका भेद ठहराओ, तब तो उन काल आदिका सभी ढंगोंसे कल्पना करना प्रयोजनसहित हो सकेगा, अन्यथा नहीं । किन्तु व्यवहार नयका आलम्बन करनेवालेके यहां वह अर्थमेद तो नहीं माना गया है । इस कारण वह काल आदिके नानापन की कल्पना करना प्रयोजनरहित ही है, दूसरी बात एक यह भी है सो सुनो !
कालाद्यन्यतमस्यैव कल्पनं तैर्विधीयतां ।
येषां कालादिभेदेपि पदार्थैकत्वनिश्चयः ॥ ७४ ॥
जिन वैयाकरणों यह काळ, कारक आदिके भेद होनेपर भी पदार्थके एकपनेका निर्णय हो रहा है । पर्वते वसति, पर्वतमधिवसति इन दोनोंका अर्थ एक ही है । दार और अबकाका एक ही अर्थ है । उन व्यवहारियों करके अनेक काळ, कारक, लिंग, आदिमें से किसी एक ही कालकी