Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
प्रकारके टिड्कार लोट्लकार तव्य प्रत्ययको अन्तमें रखनेवाले पदोंके निर्देशसे ही सामान्यरूपसे नियोगकी प्रतिपत्ति होना और उस ही से प्रवृत्ति हो जाना सम्भव जाता है । स्वर्गकी अभिलाषा रखनेवाला इस पदको देनेकी आवश्यकता नहीं है । नियोगवादियों को पूर्वापरविरुद्ध वचन नहीं कहना चाहिये ।
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फलसहितान्नियोगात् प्रवृत्तिसिद्धो च फलार्थितैव प्रवर्तिका न नियोगस्तमंतरेणापि फलार्थिनां प्रवृत्तिदर्शनात् । पुरुषवचनान्नियोगे अयमुपालंभो नापौरुषेयाग्निहोत्रादिवाक्यनियोगे तस्यानुपालभ्यत्वात् । इति न युक्तं, " सर्वे स्वल्विदं ब्रह्म " इत्यादिवचनस्याध्यनुपालभ्यत्वसिद्धेर्वेदांतवादपरिनिष्ठानात् । तस्मान्न नियोगो वाक्यार्थः कस्यचित्प्रवचिहेतुरिति ।
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अभी विधवादी ही कहें जारहे हैं । यदि द्वितीय पक्ष के अनुसार नियोगवादी फलसहित नियोगसे प्रवृत्ति होजानेकी सिद्धि करेंगे तब तो फलको अभिलाषुकता ही श्रोताओंको कममें प्रवृत्ति करानेवाली हो जावेगी । नियोग तो प्रवर्तक नहीं हुआ। क्योंकि उस नियोगके विना भी फटके अर्थी जीवोंकी प्रवृत्ति होना देखा जाता है, अतः नियोगको सफल मानना भी व्यर्थ ही रहा । नियोगवादी फिर यों कहते हैं कि छौकिक पुरुषोंके वचनले जहाँ नियोग प्राप्त किया जाता } वहां तो आप विधिवादी यह उपर्युक्त उलाहना दे सकते हैं । किन्तु पुरुष प्रयत्न द्वारा नहीं बनाये गये वैदिक अग्निहोत्र आदि वाक्योंसे ज्ञात हुये नियोगमें उक्त उपालम्भ नहीं आते हैं। क्योंकि निर्दोष बेदवाक्यजभ्य वह नियोग तो उपालम्भ प्राप्त करने योग्य नहीं है । इसके उत्तर में विधवादी कहते हैं कि इस प्रकार नियोगवादियों का कहना युक्तिपूर्ण नहीं है क्योंकि यों तो हमारा माना हुआ यह वाक्य भी उलाहना प्राप्त करने योग्य नहीं होता हुआ सिद्ध हो जाता है कि यह सम्पूर्ण जगत् निश्चय कर परमब्रह्म स्वरूप है। यहां कोई पदार्थ भेदरूप नहीं है, इत्यादिक वाक्योंकी सिद्धि हो जानेसे अद्वैत प्रतिपादक वेदान्तवादको पूर्णरूप से निर्दोष प्रसिद्धि हो जाती हैं । तिस कारणसे वाक्यका अर्थ नियोग नहीं है, जिससे कि किसी जीवकी प्रवृत्तिका निमित्तकारण बन सके । " स्यादेतत् " से प्रारम्भ कर " प्रवृत्तिहेतुः " यहांतक नियोगवादियोंको धक्का देकर विधिवादियोंने अपना मन्तव्य पुष्ट किया है । अब श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान करते हैं ।
तदेतद्विधिवादिनोपि समानं विधेरपि प्रवृत्तिहेतुत्वायोगस्याविशेषात् । प्रकृतविकल्पानतिवृत्तेः । तस्यापि हि प्रवर्तकस्वभावत्वे वेदांतवादिनामिव प्राभाकरतायागतादीनामपि प्रवर्त्तकत्वप्रसक्तेरप्रवर्तकस्वभावात्तेषामपि न प्रवर्त्तको विधि: स्थात् । स्वयमविपर्यस्तास्ततः प्रवर्तते न विपर्यस्ता इवि चेत्, कृतः संविभागो विभाव्यतां । प्रमाणाबाधितेतरमताथयणा