Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचोकवार्तिके
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अनेकान्तकी उपलब्ध होते हुये भी एकान्तोंका अनुपलम्भ होना साधा जाता है। श्री भईन्त परमेष्ठी के परमात्मपना सिद्ध हो चुकनेपर भी कपिल आदिकों में परमात्मपनका निषेध साधना अनिवार्य है । ताली फिरा देनेसे ही तालेका लग जाना जान चुकनेपर भी दृढ निश्चयके लिए तालेको । खींचकर पुनः खटका लिया जाता है । गुणोंका ग्रहण करो और साथमें दोषोंका प्रत्याख्यान भी करते जाओ । अतः दृढ निर्णय कराकर छुडाने के लिये मिथ्याज्ञानोंको हेतु, दृष्टान्त, पूर्वक प्रतिपादन करनेवाला सूत्र उमास्वामी महाराज द्वारा कहा गया है। प्रतिपक्षी दोषोंके सर्वथा निराकरण करनेसे ही शुद्ध मार्ग व्यवस्थित रह पाता है । यहांतक पहिले अध्यायका चतुर्थ आह्निक समाप्त किया गया है । ज्ञाने मैथ्यं विविच्य प्रमिविरससुखं स्वादयन् सौगतादीन् । काज्ञानादृते द्राक् स्वगुणमिह मणिर्व्यज्जयनोपलब्धः ॥ कुज्ञानादार्यलीढं जगदुपकृतिभिः स्वाभिरुद्धर्तुमिच्छन् । श्रीविद्यानन्दसूरिर्जयति विगतभीर्भाषितस्वामिसूत्रः || १॥
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सम्यग्दर्शन या जीव आदिक पदार्थोंका अधिगम करानेवाले और अभ्यई होनेसे पूर्व में प्रयुक्त किये गये प्रमाणोंका वर्णन हो चुका है । उस प्रमाणके अव्यवहित पश्चात् कहे गये नयोंका अब निरूपण करना अवसर प्राप्त है । अतः निरुक्तिसे ही लक्षणको अपने पेटमें रखनेवाली नयोंकीं भेदगणनाको कहनेवाले सूत्र रसायनकी प्राप्ति यहां मोक्षमार्ग की पारदीयसिद्धिको धारनेवाले श्री उमास्वामी महाराज द्वारा हो रही है, उसको अवधारिये ।
नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभृता नयाः॥३३॥
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शद्व सममिरूढ, और एवंभूत, ये सात नय हैं । यद्यपि प्रमाणोंसे नय भिन्न हैं । फिर भी शद्वों द्वारा जानने योग्य विषयको जतानेवाले श्रुतज्ञानके एक देश नय माने गये हैं । शद्व आत्मक और ज्ञान आत्मक नय हो जाते हैं । इसका विवेचन " प्रमाणनयैरधिगमः " इस सूत्र के व्याख्यानमें किया जा चुका है 1
किं कृत्वाधुना किं च कर्तुमिदं सूत्रं ब्रवीतीत्याह ।
अबतक क्या करके और अब आगे क्या करनेके लिये इस सूत्रको श्री उमास्वामी महाराज व्यक्त कर रहे हैं ? इस प्रकार तक शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य सूत्रकार के हार्दिक भावों अनुसार समाधान कहते हैं ।
निर्देश्याधिगमोपायं प्रमाणमधुना नयान् । नयैरधिगमेत्यादि प्राह संक्षेपतोऽखिलान् ॥ १ ॥