Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
तो व्यंजनपर्याय नैगमाभास है। क्योंकि गुणोंका परस्परमें और अपने मायके साथ कथंचित् अभेद वर्त रहा है। अतः ऐसी दशामें सर्वथा भेद कथन करते रहनेसे नैयायिकाको विरोध दोष प्राप्त होता है।
अर्थव्यंजनपर्यायौ गोचरीकुरुते परः। धार्मिके सुखजीवित्वमित्येवमनुरोधतः॥३५॥
पर्यायनैगमके तीसरे प्रभेदका उदाहरण यों है कि धर्मात्मा पुरुषमें सुखपूर्वक जीवन प्रवर्त रहा है। छात्र प्रबोधपूर्वक घोषण कर रहा है । इत्यादि प्रयोगोंके अनुरोधसे कोई तीसरा न्यारा नैगम नय विचारा अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय दोनोंको विषय करता है।
भिने तु सुखजीवित्वे योभिमन्येत सर्वथा ।
सोर्थव्यंजनपयोयनैगमाभास एव नः ॥ ३६॥
इसका नयाभास यों है कि जो प्रतिवादी सुख और जीवनको सर्वथा मिन बमिमानपूर्वक मान रहा है, अथवा बात्मासे भिन्न दोनोंको करप रहा है, वह तो हमारे यहां अर्थव्यंजनपर्यायका आभास है । यानी यह झूठा नय कुनय है । आयुःकर्मका उदय होनेपर विवक्षित पर्यायमें अनेक समयतक प्राणोंका धारण करना जीवन माना गया है । और आत्माके अनुजीवी गुण हो रहे सुखका सातावेदनीय कर्मके उदय होनेपर विभावपरिणति हो जाना यहां लौकिक सुख लिया गया है। हां, कभी कभी धर्मास्माको सम्यग्दर्शन होजानेपर अतीन्द्रिय आत्मीय सुखका भी अनुभव हो जाता है । वह स्वाभाविक सुखमें परिगणित किया जावेगा।
शुद्धद्रव्यमशुद्धं च तथाभिप्रेति यो नयः। स तु नैगम एवेह संग्रहव्यवहारजः ॥ ३७॥
पर्यायनैगमके तीन भेदोंका लक्षण और उदाहरण दिखलाकर अब द्रव्य नैगमके भेद और उदाहरणोंको दिखाते हैं कि जो नय शुद्धद्रव्य या अशुद्धद्रव्यको तिस प्रकार जाननेका अभिप्राय रखता है, वह नय तो यहां संग्रह और व्यवहारसे उत्पन्न हुआ नैगमनय ही कहा जाता है।
सव्व्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् ।
इत्येवमवगंतव्यस्तद्भेदोक्तिस्तु दुर्नयः ॥ ३८॥
तिस प्रकार अन्वयका विशेषरूपकरके निश्चय हो जानेसे सम्पूर्ण बस्तुओंको सत् द्रव्य इस प्रकार कहनेवाला अभिप्राय तो शुद्ध द्रव्यनैगम है। क्योंकि सभी पदार्थोंमें किसी भी स्वकीय