Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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नय की अपेक्षा कोई अर्थमेद नहीं माना गया है । " मन्यसे, यास्यामि" का जो अर्थ निकलता है, वही " मन्ये " " यास्यसि" का अर्थ है। किन्तु शब्दनयके अनुसार दूसरेके मानसिक विचारोंका अनुवाद करनेमें या हंसीमें ऐसा परिवर्तन हुआ है। व्याकरणमें युष्मत्, अस्मत् का ही बदलना कहा है, प्रथम पुरुषका भी सम्भव जाता है। देखिये, एक मित्र दूसरेसे कह रहा है कि वह तीसरा देवदत्त मनमें विचारता होगा कि मैं रथमें बैठ कर जाऊंगा, किन्तु नहीं जायगा उसका पिता गया । ' एतु मन्ये रथेन यास्यति यातस्ते पिता' यहां मन्यतेके स्थानपर मन्ये और यास्यामिके बदले यास्यति हो सकता है । किन्तु इसका निषेध कर दिया है। तथा " समवप्रविभ्यः स्थः " इस सूत्रसे बात्मने पद करनेपर संतिष्ठेत, अप्रतिष्ठेत, प्रतिष्ठेत, या संहरति, विहरति, परिहरति, आहरति, यहां उपसर्गोके भेद होनेपर भी स्थूलबुद्धि व्यवहारियोके यहां एक ही अर्थ सगझा जा रहा है। " उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते " इस नियमको माननेके लिये वे बाध्य नहीं होना चाहते हैं। किन्तु ये उक्त प्रकार उनके मन्तव्य परीक्षा करनेपर श्रेष्ठ नहीं ठहर सकेंगे। इस प्रकार शब्दनय प्रकाशित कर देवेगा । क्योंकि काल, कारक आदिके भेद होनेपर भी यदि अर्थका भेद नहीं माना जायगा तो अतिप्रसंग हो जावेगा । तू और तुम या आहार और परिहार, पठ्यते, पठामि इत्यादिके प्रसिद्ध हो रहे मिन्न मिन्न अर्थोके एक हो जानेसे जगत्में अनर्थ हो जावेगा। समर्थ भी व्यर्थ हो जावेगा।
ये हि वैयाकरणव्यवहारनयानुरोधेन 'धातुसंबंधे प्रत्यया' इति सूत्रमारभ्य विश्वश्वास्य पुत्रो जनिता भावि कृत्यमासीदित्यत्र कालभेदेप्येकपदार्थमाहता यो विश्वं दृक्ष्यति सोस्य पुत्रो जनितेति भविष्यकाळेनातीतकालस्याभेदोभिमतः तथा व्यवहारदर्शनादिति । तन्न श्रेयः परीक्षायां मूलक्षतेः कालभेदेप्यर्थस्याभेदेऽतिप्रसंगात् रावणशंखचक्रवर्तिनोरप्यतीतानागतकालयोरेकत्वापत्तेः । आसीद्रावणो राजा शंखचक्रवर्ती भविष्यतीति शद्वयोमिनविषयत्वान्नैकार्थतेति चेत्, विश्वदृश्वा जनितेत्यनयोरपि मा भूत् तत एव । न हि विश्वं दृष्टवानिति विश्वदृश्वेतिशतस्य योर्चातीतकालस्य जनितेति शद्धस्यानागतकालः। पुत्रस्य भाविनोतीतत्वविरोधात् । अतीतकालस्याप्यनागतत्वाध्यारोपादेकार्थताभिप्रेतेति चेत्, तर्हि न परमार्थतः कालभेदेप्यभिन्नार्थव्यवस्था ।
जो भी कोई पण्डित व्याकरणशास्त्र जाननेवालोंके व्यवहारकी नीतिके अनुरोधसे यों अर्थ मान बैठे हैं, लकारार्थ प्रकियाके " धातुसम्बन्धे प्रत्ययाः " धातुके अर्थोके सम्बन्धमें जिस कालमें जो प्रत्यय पूर्व सूत्रोंमें कहे गये हैं, वे प्रत्यय उन कालोंसे अन्य कालोंमें भी हो जाते हैं, इस सूत्रका आरम्भ कर विश्वको देख चुकनेवाला पुत्र इसके होगा या होनहार जो कर्तव्य होनेवाला था यह होगया, चार दिन पीछे आनेवाली चतुर्दशी एक तिथिका क्षय हो जानेसे तीन दिन
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