Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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व्यावहारिक कल्पना करके तो तुम बौद्धों के यहांइष्ट पदार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है । क्योंकि संवृत्तिको झूठा माना गया है । और वास्तविकरूपसे भी तुम्हारे यहां इष्ट तत्त्वोंकी सिद्धि नहीं हो सकती है । क्योंकि यों तो परमार्थभूत हो रहे एक अन्वित त्रिकालवर्ती द्रव्यकी सिद्धि हो जानेका प्रसंग हो जावेगा । उस परिणामी अन्वेता द्रव्यको नहीं माननेपर तो वास्तविक इष्ट हो रहे धर्मोपदेश, साध्यसाधनभाव, प्रेत्यभाव, बन्ध, मोक्ष, आदि इष्टपदार्थोंकी सिद्धि नहीं हो सकेगी । इस सिद्धान्त हम हमारे बनाये हुये " विद्यानन्दमहोदय" नामक ग्रन्थमें कई बार परीक्षा कर चुके हैं । विशेष जिज्ञासुओं को उस ग्रन्थका अध्ययन कर अपनी तृप्ति कर लेनी चाहिये । यहां अधिक विस्तार नहीं किया जाता है ।
शब्दनयमुपवर्णयति ।
चार अर्थ नयोंका वर्णन कर अब श्री विद्यानन्द स्वामी शब्दनयका सुमधुर वर्णन करते हैं । कालादिभेदतोर्थस्य भेदं यः प्रतिपादयेत् ।
सोत्र शब्दनयः शब्दप्रधानत्वादुदाहृतः ॥ ६८ ॥
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जो नय काल, कारक, लिंग आदि के भेद अर्थके भेदको समझा देता है, वह नय यहां शब्दकी प्रधानता से शब्दनय कह दिया गया है । अर्थात् शब्दके वाध्य अर्थपर दृष्टि कराने की अपेक्षा यह नय शब्दनय है । पहिलेके चार नयोंकी दृष्टि शब्द के वाध्य अर्थका लक्ष्य रखते हुये नहीं थी । " शब्दप्रधानो नयः शब्दनयः " " अर्थप्रधानो नयः अर्थनयः " I
काळकारकलिंगसंख्यासाधनोपग्रह भेदाद्भिन्नमर्थ शपतीति शब्दो नयः शब्दप्रधानस्वादुदाहृतः । यस्तु व्यवहारनयः कालादिभेदेप्यभिन्नमर्थमभिप्रैति तमनूद्य दूषयन्नाह ।
भूत, भविष्यत्, वर्तमान, काल या कर्म, कर्त्ता, कारण, आदि कारक अथवा स्त्री, पुम्, नपुंसकलिंग, तथा एक वचन, द्विवचन बहुवचन संख्या और अस्मद् युष्मद् अन्य पुरुषके अनुसार उत्तम, मध्यम, प्रथम, पुरुष संज्ञाओंका साधन एवं प्र, परा, उप, सम् आदि उपसर्ग, इस प्रकार इनका आदि भेदों से जो नय भिन्न अर्थको चिल्लाता हुआ समझा रहा है, यों यह शब्दमयका निरुक्तिले अर्थ लब्ध हो जाता है । शब्दकी प्रधानतासे शब्दनय कहा गया है । और इसके पूर्वमें जो व्यवहारनय कहा गया है, वह तो काळ, आदिके भेद होनेपर भी अभिन्न अर्थको समझानेका अभिप्राय रखता है । उस व्यवहार नयको अनुवाद कर श्रीविद्यानन्द स्वामी दूषित कराते हुये स्पष्ट कथन करते हैं ।
विश्वदृश्वास्य जनिता सूनुरित्येकमाहृताः । पदार्थ कालभेदेपि व्यवहारानुरोधतः ॥ ६९ ॥