Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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उपदेश तभी सिद्ध हो पाता है, जब कि अधर्मके उपदेशमें दूषण उठाये जा सकें । ये सब वाच्यवाचक भाव माननेपर और लोकव्यवहारको सत्य माननेपर सध सकता है। अन्यथा नहीं । और यों मान लेनेसे तो योगाचारके यहां द्वैतपनका प्रसंग माया ।
एतेन चित्राद्वैतं, संवेदनाद्वैत, क्षणिकमित्यपि मननमृजुसूत्राभासतामायातीत्युक्तं वेदितव्यं ।
इस उक्त कथनसे बौद्धोंका चित्राद्वैत अथवा सम्वेदनाद्वैतको क्षणिक मानना यह भी ऋजुसूत्राभासपने को प्राप्त हो जाता है, यह कह दिया गया समझ लेना चाहिये । अर्थात्-ज्ञानके नीलाकार, पीताकार, हरित आकार,क्षणिकत्व बाकार,विशेष आकार, इन आकारोंका पृथक् विवेचन नहीं किया जा सकता है । अतः स्वयं रुचती हुयी चित्रताको धारनेवाला यह चित्राद्वैत ज्ञान है, ऐसा बाद भी कुनय है । ग्राह्य, ग्राहक, सम्पित्ति इन तीनों विषयोंसे रहित माना जा रहा शुद्ध सम्बेदन अद्वैत भी ऋजुसूत्रका कुनय जान लेना चाहिये ।
किं च सामानाधिकरण्याभावो द्रव्यस्योभयाधारभूतस्य निवात् । तथा च कुतः । शदादेर्षिशेष्यता क्षणिकत्वकृतकत्वादेः साध्यसाधनधर्मकलापस्य च तद्विशेषणता सिध्येत तदसिदौ च न साध्यसाधनभावः साधनस्य पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वानुपपतेः । कल्पनारोपितस्य साध्यसाधनमावस्येष्टेरदोष इति चेन, बहिरर्थत्वकल्पनायाः साध्यसाधनधर्माधारानुपपत्ते, कचिदप्याधाराधेयतायाः संभवाभावात् ।
अणिकवादी बौद्धोके यहां दूसरे ये दोष भी आते हैं कि क्षणिक परमाणुरूप पक्षमें समान अधिकरणपना नहीं बनता है। क्योंकि दो परिणामोंके आधारभूत समानद्रव्यको स्वीकार नहीं किया गया है और तैसा होनेपर शब्द आदिको विशेष्यपना नहीं सिद्ध हो सकेगा। तथा क्षणिकत्व बादिक साध्य और कृतकत्व आदिक साधनभूत धोके समुदायको उन शब्द आदि पक्षका विशेषणपना नहीं बन पावेगा और जब विशेष्यविशेषण भाव सिद्ध नहीं हो सका तो क्षणिकत्व और कृतकत्वमें साध्य, हेतु, पना नहीं बन सका । ऐसी दशामें हेतुके धर्म माने गये पक्षवृत्तित्व और सपक्षसत्व नहीं सिद्ध हो पाते हैं । अर्थात्-शद ( पक्ष ) क्षणिक है ( साध्य ) कृतक होनेसे (हेतु ) यहां अनुमान प्रयोगमें पक्ष विशेष्य होता है। बाध्य और हेतु उसमें विशेषण होकर रहते हैं । हेतुमें पक्षवृत्तित्व,
पक्षसत्व और विपक्षव्यावृत्तत्व ये तीन धर्म रहते हैं तथा पक्षमें रहनेकी अपेक्षा हेतु और साध्यका सामानाधिकरण्य है। अतः हेतुमें ठहरनेकी अपेक्षा पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षन्यावृत्ति इन तीनों धर्मों में समान अधिकरणपना है । कालान्तरस्थायी सामान्य पदार्थ या द्रव्यके माननेपर ही समानाधिकरणपना बनता है, अन्यथा नहीं । यदि बौद्ध यों कहें कि कल्पनासे आरोप कर लिया गया साध्यसाधन भाव हमको अभीष्ट है, अतः कोई दोष नहीं है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं