Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
२४२
तत्वार्यशोकवार्तिके
नय है । सत्के व्याप्यद्रव्य और पर्याय है । सम्पूर्ण द्रव्योंमें व्यापनेवाळे द्रव्यत्वको अपरसंग्रह स्वकीय अभिप्रायद्वारा जान लेता है और दूसरा अपर संग्रह तो सम्पूर्ण पर्यायोंमें व्यापनेवाले पर्यायत्वको जाम लेता है । तिस ही प्रकम और इनके भी व्याप्य हो रहे बहुतसे अवान्तर भेदोंका एकपनेसे संग्रह कर यह नय जानता हुआ वर्त रहा है। अपने प्रतिकूल पक्षका निराकरण नहीं करनेसे यह समीचीन नय समझा जावेगा और अपने अवान्तर सत्तावाले विषयोंके प्रतिपक्षी महासत्तावाले या तव्याप्यव्याप्य अन्य व्यक्तिविशेषोंका निषेध कर देगा तो कुनय कहा जावेगा । जैसे कि अपर संग्रहके विषय द्रव्यपनेके व्याप्य हो रहे सम्पूर्ण जीव द्रव्योंका एकपनेसे संग्रह करना अथवा कालत्रयवर्ती पर्यायों में द्रवण कर रहे अजीवके पुद्गल, धर्म, आदि मेदोंका संग्रह कर लेना तथा पर्यायोंके विशेष भेद सम्पूर्ण घटका या सम्पूर्ण पटोंका एकपनेसे संग्रह करना अपर संग्रहनय है। इस प्रकार व्यवहारनयसे पहिले अनेक विशेष व्यापि सामान्योंको जानता हुआ यह अपरसंग्रहनय बहुत प्रकारका वर्त रहा है।
स्वव्यक्त्यात्मकतैकांतस्तदाभासोप्यनेकधा। प्रतीतिनाधितो वोध्यो निःशेषोप्यनया दिशा ॥ ५७॥
उस अपर संग्रहका आमास मी अनेक प्रकारका है । अपनी व्यक्ति - और जातिके सर्वथा एक बात्मकपनेका एकान्त तो प्रतीतियोंसे बाधित हो रहा अपर संग्रहामास समझना चाहिये । यह एक उदाहरण उपलक्षण है । इस ही संकेतसे सम्पूर्ण भी अपर संग्रहाभास समझ लेना । अर्थात्घट सामान्य और घटविशेषोंका सर्वथा भेद या अभेद माननेका आग्रह करना अपर संग्रहामास है ।
द्रव्यत्वं द्रव्यात्मकमेव ततो तरभूतानां द्रव्याणामभावादित्यपरसंग्रहाभासा, प्रतीतिविरोधात् । तथा पर्यायत्वं पर्यायात्मकमेव ततार्थातरभूतपर्यायासत्वादिति तत्त्वं तत एव । तथा जीवत्वं जीवात्मकमेव, पुगळवं पुद्गलात्मकमेव, धर्मत्वं धर्मात्मकमेव, अधर्मत्वं अधर्मात्मकमेव, आकाशत्वं आकाशात्मकमेव, कालत्वं कालात्मकमेवेति चापरसंग्रहाभासाः। जीवत्वादिसामान्यानां स्वव्यक्तिभ्यो भेदेन कचित्मतीतेरन्यथा तदन्यतरकोपे सर्व
लोपानुषंगात् । • आचार्य कह रहे हैं कि जो कोई सांख्यमत अनुयायी द्रव्यस्व सामान्यको द्रव्य व्यक्तियों के साथ तदात्मक हो रहा ही मानते हैं, क्योंकि उस द्रव्यत्वसे भिन्न हो रहे द्रव्योंका अभाव है। यह उनका मानना प्रतीतियोंसे विरोध हो जाने के कारण अपरसंग्रहाभास है । तिसी प्रकार पर्यायस्वसामान्य भी पर्याय आत्मक ही है । उस पर्याय सामान्यसे सर्वथा अर्थान्तरभूत हो रहे पर्यायोंका असद्भाव है । यह भी तिस ही कारण यानी प्रतीतिविरोध हो जानेसे वहां अपरसंग्रहामास है। तथा जीवत्व अनेक जीवोंका तदात्मक ही हो रहा धर्म है । पुद्गलस्व सामान्य पुद्रा व्यक्तिस्वरूप ही