Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
व्यवहारस्तद्विभजते यद्द्द्रव्यं तज्जीवादिषड्विधं यः पर्यायः सद्विविधः क्रमभावी
सहभावी चेति ।
२४५
संग्रह करता है और कि जो सत् है वह
द्रव्यपनेसे संग्रह कर
सबसे पहिले परसंग्रह तो " सम्पूर्ण पदार्थ सत् हैं " इस प्रकार व्यवहार नय तो उन सत् पदार्थोंके विभाग करनेका यो अभिप्राय रखता है द्रव्य या पर्याय है तथा जिस ही प्रकार अपर संग्रहनय सम्पूर्ण द्रव्योंको एक देता है और सम्पूर्ण त्रिलोक त्रिकाळवर्त्ती पर्यायको एक पर्यायपनेसे संग्रह कर लेता है । किन्तु व्यवहार नय तो उस द्रव्य और पर्यायका विभाग यों कर डालता है कि जो द्रव्य है वह जीव पुद्गल, आदि छह प्रकार है और जो पर्याय है वह क्रमभावी और सहभावी इस ढंगसे दो प्रकार है ।
पुनरपि संग्रहः सर्वान् जीवादीन् संगृह्णाति जीवः पुद्गलो धर्मोऽधर्मः आकाश काळ इति क्रमभुवश्च पर्यायान् क्रमभाविपर्यांय इति, सहभाविपर्यायांस्तु सहभाविपर्याय इति । व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रैति यो जीवः स मुक्तः संसारी च यः पुद्गलः सोणुः स्कंधश्च, यो धर्मास्तिकायः स जीवगतिहेतुः पुद्गलगतिहेतुश्च, यस्त्वधर्मास्तिकायः स जीवस्थितिहेतुरजीव स्थितिहेतुश्च पर्यायतो द्रव्यतस्तस्यैकत्वात् । तथा यदाकाशं तल्लोकाकाशमलोकाकाशं च यः काल स मुख्यो व्यावहारिकश्चेति यः क्रमभावी पर्यायः स क्रियारूपोऽक्रियारूपश्च विशेषः यः सहभाषी पर्यायः स गुणः सदृशपरिणामश्च सामान्यमिति अपरापरसंग्रहव्यवहारप्रपंच: प्रागृजुसूत्रात्परसंग्रहादुत्तरः प्रतिपत्तव्यः, सर्वस्य वस्तुनः कथंचित्सामान्यविशेषात्मकत्वात् । न चैवं व्यवहारस्य नैगमत्वप्रसक्तिः संग्रहविषयप्रविभागपरत्वात् सर्वत्र नैगमस्य तु गुणप्रधानोभयविषयत्वात् ।
अपर संग्रहकी एक वार प्रवृत्ति हो चुकनेपर फिर भी उसका व्याप्य हो रहा अपर संग्रह नय तो सम्पूर्ण जीव आदिकोंको जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल इस प्रकार व्याप्य हो रहे अनेक जीव आदिका संग्रह करता है तथा क्रमसे होनेवालीं अनेक सजातीय पर्यायोंको ये क्रमभावी पर्याय हैं इस प्रकार संग्रह करता है एवं सहभावी अनेक जातिवालीं पर्यायोंको तो ये सहभावी पर्याय है, इस प्रकार संग्रह करता है। किन्तु यह व्यवहार नय तो उन संग्रह नय द्वारा गृहीत विषयोंके विभाग करने की यों अभिलाषा करता है कि जो जीवद्रव्य है वह मुक्त और संसारी है और जो पुद्गलद्रव्य है वह अणुस्वरूप और स्कन्धस्वरूप हैं, जो धर्मास्तिकाय है वह जीवकी गतिका कारण और पुद्गलकी गतिका कारण यों दो प्रकार है तथा जो अधर्मास्तिकाय है वह तो जीवोंकी स्थितिका कारण और पांचो अजीवों की स्थितिका कारण, यों दो प्रकार या छह प्रकार है । अथवा अवके छह मे पीछे अपर संप्रइसे विभक्त कर व्यवहार करना । धर्म अर्धम द्रव्यों का