Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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वार्थकोकवार्तिके
संयोगो विप्रयोगो वा क्रियाकारकसंस्थितिः । सादृश्यं वैसदृश्यं वा स्वसंतानेतरस्थितिः ॥ ६६ ॥ समुदायः क च प्रेत्यभावादिद्रव्यनिह्नवे । बंधमोक्षव्यवस्था वा सर्वथेष्टाऽप्रसिद्धितः ॥ ६७ ॥
नित्य परिणामी द्रव्यको नहीं स्वीकार करने पर बौद्धों के यहां संयोग अथवा विभाग तथा क्रियाकारककी व्यवस्था और सादृश्य, वैसादृश्य अथवा स्वसंतान परसंतानों की प्रतिष्ठा एवं समुदाय और मरकर जन्म लेना स्वरूप प्रेत्यभाव या साधर्म्य आदिक कहां बन सकेंगे ? अथवा बन्ध, मोक्ष, की व्यवस्था कैसे कहां होगी ? क्योंकि सभी प्रकारोंसे इष्ट पदार्थोंकी तुम्हारे यहां प्रसिद्धि नहीं हो रही है । अर्थात् परस्पर मद्दीं संसर्गको प्राप्त हो रहे स्वलक्षण क्षणिक परमाणुओंके ही मामनेपर बौद्धों के यहां संयोग नहीं बनता है, तब तो संयोगको नाशनेवाला गुण ( धर्म ) विभाग नहीं बन सकेगा । क्रिया, कारककी व्यवस्था तो तभी बनती है, जबकि " जायते, अस्ति, विपरिणमते, वर्धते, अपक्षयते, विनश्यति " ये क्रियायें कुछ काकमें हो सकें । स्वतंत्रपना, बनायागयापना, असाधकतमपना, सम्प्रदानता, अपादानता, अधिकरणता ये क्षणिकपक्ष में नहीं सम्भवते हैं । क्षणिक पक्ष में अहमिंद्रोंके समान सभी परमाणुयें न्यारे न्यारे राजा हैं । अतः यह इसका कार्य है, यह इसका कारण है, यह निर्णय करना क्षणिकपक्ष में दुर्घट है। सभी क्षणिक परिणामोंको सर्वथा भिन्न माननेपर सादृश्यका असम्भव है । वैसादृश्य में भी कुछ मिलना हो जानेकी आवश्यकता है, तभी विसशोका भाववैसादृश्य सम्बन्ध घटित होता है। भैंसा और बैलमें पशुपन, जीवपन या द्रव्यत्वसे सादृश्य होनेपर ही वैसादृश्य शोभता है । लक्ष्मण और रावण में प्रतियोगित्व ( शत्रुभाव) सम्बन्ध था | अपने त्रिकालवर्त्ती परिणामोंकी सन्तान और अन्य जीवोंकी सन्ताने तो अन्वेता द्रव्यके माननेपर ही घटिल होती है, अन्यथा नहीं । और समुदाय तो अनेक क्षणोंका कथंचित् एकीकरण करनेपर ही बनता है देशिक समुदाय और कालिक समुदाय तो परिणामोंका कथंचित् एकीभाव माननेपर सम्भवता है। तथा मरके जन्म तो वही ले सकेगा जो यहां से वहांतक अन्वित रहेगा । मरा तो कोई क्षण और किसी अन्य क्षणिक परिणामने जन्म के लिया तो उसका प्रेत्यभाव नहीं माना जा सकता है । ऐसी दशामें पुण्य, पापके, भोग भी उसको नहीं मिल सकेंगे । इसका अष्टसहस्री में अच्छा विचार किया गया है । क्वा प्रत्ययवाले वाक्य दो आदि क्रियाओं में व्यापनेवाले अन्वयी द्रव्यको वांछते हैं । तथा न भी क्षणिक मतमें नहीं प्रसिद्ध होता है । सर्वधा विभिन्न हो रहे विशेष पदार्थों में समानता नहीं सम्भवती है। इसी प्रकार क्षणिक पक्ष बन्ध, मोक्ष तत्त्वकी व्यवस्था नहीं हो सकती है । सर्वथा क्षणिकचित्त भला किससे बंध सकेगा ! नाशस्वरूप मोक्षको स्वाभाविक माननेपर सम्यक्स्व,