Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वायचिन्तामणिः
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और जो नय पुनः कल्पनासे आरोपे गये द्रव्य और पर्यायके विभागका अभिप्राय करता है, वह कुनय होता हुआ व्यवहारामास है । क्योंकि यदि द्रव्य और पर्यायके विभागको वास्तविक नहीं माना जावेगा तो प्रमाणोंसे बाधा उपस्थित हो जावेगी। उसीको अनुमान बना कर आचार्य महोदय स्पष्ट दिखलाते हैं कि द्रव्य और पर्यायका अच्छा हो रहा विभाग (पक्ष ) कोरी कल्पनाओंसे आरोप किया गया नहीं है ( साध्य ) अपने अपने द्वारा की जाने योग्य अर्थक्रियाका हेतु होनेसे (हेतु ) अन्यथा यानी द्रव्य और पर्यायके विभागको कल्पनासे गढ लिया गया माननेपर तो उन कल्पित द्रव्य और पर्यायोंसे उस अर्थक्रियाकी सिद्धि नहीं हो सकेगी, जैसे कि वन्ध्याके पुत्रसे कुटुम्ब संतान नहीं चल सकती है । आकाशके पुष्पसे सुगन्ध प्राप्ति नहीं हो सकती है, इत्यादि ( व्यतिरेकदृष्टान्त ) यदि द्रव्य या पर्यायोंकी कोरी कल्पना करनेवाले बौद्ध यों कहें कि ये सब अर्थ क्रिया करनेके या " यह अंश द्रव्य है " " इतना अंश पर्याय हैं" ये सब व्यवहार तो मिथ्या हैं, जैसे कि दुकरियापुरान या किम्बदन्तियां झूठी हुआ करती हैं। अब आचार्य कहते हैं तब तो उस व्यवहारके अनुकूळपने करके मानी गयी प्रमाणोंकी प्रमाणता भी नहीं हो सकेगी, अन्यथा स्वप्न, मूछित, भादिके प्रान्त व्यवहारोंकी अनुकूलतासे भी उन स्वप्न आदिके ज्ञानोंको प्रमाणपनका प्रसंग मा जावेगा ।वही तुम्हारे प्रन्थोंमें कहा जा चुका है कि लौकिक व्यवहारोंकी अनुकूलता करके प्रमाणोंका प्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा है। दूसरे प्रकारोंसे ज्ञानोंकी प्रमाणता (प्रधानता) नहीं है । अन्य प्रकारोंसे प्रमाणपना माननेपर बाधित किये जा रहे उन स्वमशान या भ्रान्त ज्ञान अथवा संशय ज्ञानोंको भी उस प्रमाणपनेका प्रसंग हो जावेगा । अर्थात्-दिनरात लोकव्यवहारमें आनेवाले कार्य तो द्रव्य और पर्यायोंसे ही किये जा रहे देखे जाते हैं। व्यवहारी मनुष्य लौकिक व्यवहारोंसे ज्ञानको प्रमाणताको जान लेता है। शीतळ वायुसे जलके ज्ञानमें प्रामाण्य जान लिया जाता है। अमुकुछ, प्रतिकूल, व्यवहारोंसे शत्रुता, मित्रता, परीक्षित हो जाती है । पठन, पाठन, चर्चा, निर्णायकशक्तिसे प्रकाण्ड विद्वत्ताका निर्णय कर पिया जाता है। यदि ये व्यवहार मिथ्या होते तो ज्ञानोंकी प्रमाणताके सम्पादक नहीं हो सकते थे । यदि झूठे व्यवहारोंसे ही ज्ञानमें प्रमाणता आने लगेगी तब तो मिथ्याज्ञान भी सबसे ऊंचे प्रमाण बन बैठेंगे । महामूर्ख जन पण्डितोंकी गद्दियोंको हडप लेंगे। किन्तु ऐसी अन्धेर नगरीकी व्यवस्था प्रामाणिक पुरुषोंमें स्वीकार नहीं की गयी है। अतः वास्तविक द्रव्य और पर्यायों के विभागोंके व्यवहारको जता रहे व्यवहारनयका वर्णन यहांतक समाप्त हो चुका है। तदनुसार श्रद्धा करो, एकान्तको छोडो।
सांप्रतमृजुसूत्रनयं सूत्रयति। ।
व्यवहार नयको कह कर अब वर्तमान काळमें चौथे ऋजुसूत्र नयका श्री विद्यानन्द स्वामी सूचन कराते हैं। जैसे कि धीरमे योग्य काठ या तोडने योग्य पटियामें सूतका सीधा चिहकर इधर