Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
सत्त्वं सुखार्थपर्यायाद्भिन्नमेवेति संमतिः ।
दुर्नीतिः स्यात्साधत्वादिति नीतिविदो विदुः ॥ ४२ ॥
सुखस्वरूप अर्थपर्यायसे सत्त्वको सर्वथा भिन्न ही मानते रहना इस प्रकारका सामिमान अभिप्राय तो दुर्नाति है। क्योंकि सुख और सत्त्वके सर्वथा मेद माननेमें अनेक प्रकारकी बाधाओंसे सहितपना है । इस प्रकार नयोंके जाननेवाले विद्वान् समझ रहे हैं। यानी सुख और सवका सर्वथा मेदका अभिमान तो शुद्धद्रव्य अर्थपर्याय नैगमका आभा है 1
क्षणमेकं सुखी जीवो विषयीति विनिश्चयः । विनिर्दिष्टशेर्यपर्यायाशुद्धद्रव्य गनैगमः ॥ ४३ ॥
यह संसारी जीव एक क्षणतक सुखी है । इस प्रकार विशेष निश्चय करनेवाला विषयी नय तो अर्थपर्याय अशुद्धद्रव्य को प्राप्त हो रहा नैगम विशेषरूपेण कहा गया है। यहां सुख तो अर्थ पर्याय है, और संसारी जीव अशुद्धद्रव्य है । अतः इस नयसे अर्थपर्यायको गौणरूप से और अशुद्धद्रव्यको प्रधानरूपसे विषय किया गया है ।
सुखजीव भिदोक्तिस्तु सर्वथा मानवाधिता ।
दुर्नीतिरेव बोद्धव्या शुद्धबोधेर संशयात् ॥ ४४ ॥
सुखका और जीवका सर्वथा भेदरूपसे कहना तो दुर्नय ही है। क्योंकि गुण और गुण में सर्वथा भेद कहना प्रमाणोंसे बाधित है। जिन विद्वानोंके प्रबोध परिशुद्ध हैं, उन्होंने संशयरहितपसे इस बात को कहा है कि सुख और जीवका सर्वथा भेद कहना अर्थपर्याय अशुद्धद्रव्य नैगमामास है, यह समझलेना चाहिये ।
गोचरीकुरुते शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्ययो ।
नैगमोन्यो यथा सच्चित्सामान्यमिति निर्णयः ॥ ४५ ॥
तीसरा शुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय नैगम इन दोनोंसे भिन्न इस प्रकार है, जो कि शुद्धद्रव्य और व्यंजन पर्यायको विषय करता है । जैसे कि यह सत्वामान्य चैतन्यस्वरूप है, इस प्रकारका निर्णय करना शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय नैगम नय है। यहां सत् सामान्य तो शुद्धद्रव्य है । और उसका चैतन्यपना व्यंजनपर्याय है। गौणरूप और प्रधानरूपसे यह नय दोनोंको जानलेता है ।