Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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संग्रहे व्यवहारे वा नांतर्भावः समीक्ष्यते।
नैगमस्य तयोरेकवस्त्वंशप्रवणत्वतः ॥ २४ ॥ किसीकी शंका है कि प्रमाणसे नैगमका विषय विशेष है। अतः नगमका प्रमाणमें भले ही अन्तर्भाव नहीं होय, किंतु थोडे विषयवाले नैगमका स्वल्पविषयग्राही संग्रहनय अथवा व्यवहारनय में तो अन्तर्भाव हो जायगा ! अब आचार्य कहते हैं कि यह विचार करना अच्छा नहीं है। क्योंकि उन संग्रह और व्यवहार दोनों नयोंकी एक ही वस्तु अंशको जाननेमें तत्परता हो रही है । अर्थात्-नैगम तो धर्म और धर्मी या दोनों धर्मी अथवा दोनों धर्मोको प्रधान और गौणरूपसे जान लेता है। किन्तु संग्रह और व्यवहारनय तो वस्तुके एक ही अंशको विषय करते हैं। अतः इन से नैगमका पेट बडा है । दूसरी बात यह है कि संग्रह तो सद्भूत पदार्थोका ही संग्रह करता है और नैगम सत्, असत्, समी पदार्थों का संकल्प कर लेता है। यहां असत् कहनेसे " आकाश पुष्प " आदि असत् पदार्थोको नहीं पकडना, किन्तु सत् होने योग्य पदार्थ यदि संकल्प अनुसार नहीं बने या नहीं बनेंगे, वे यहां असत् पदार्थ माने गये हैं । जैसे कि इन्द्र प्रतिमाको बनानेके लिए संकल्प किये जा चुकनेपर पुनः विघ्नवश काठ नहीं लाया गया अथवा लकडी लाकर भी उस लकडीसे इन्द्रप्रतिमा नहीं बन सकी, यों ही लकडी जल गयी या घुन गयी । ऐसी दशामें वह इन्द्रका अभिप्राय असत् पदार्थका संकल्प कहा जाता है।
नर्जुसूत्रादिषु प्रोक्तहेतवो वेति षण्नयाः । संग्रहादय एवेह न वाच्याः प्रपरीक्षकैः ॥२५॥
ऋजुसूत्र शब्द सममिरूढ, एवंभूत, इन प्रकारवाले नयोंमें भी नैगमका अन्तर्भाव नहीं हो पाता है। क्योंकि इसका कारण भले प्रकार कहा जा चुका है । अर्थात्-ये ऋजुसूत्र आदिक भी वस्तुके एक बंशको ही जाननेमें लालीन रहते हैं । इस कारण नैगमके विना संग्रह आदिक छह ही नय हैं । यह अच्छे परीक्षक विद्वानोंको यहां नहीं कहना चाहिये । सबसे पहिले नैगमनयका मानना अत्यावश्यक है।
सप्तैते नियतं युक्ता नैगमस्य नयत्वतः।
तस्य त्रिभेदव्याख्यानात् कैश्चिदुक्ता नया नव ॥ २६ ॥
नैगमको भी नयपना हो जानेसे ये नय नियमसे सात ही मानने योग्य हैं । उस नैगमके तीन भेदरूप व्याख्यान कर देनेसे किन्हीं विद्वानोंने नौ नय कहे हैं । अर्थात्-पर्याय नैगम, द्रव्य
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