Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
२१३
यहां कोई यो शंका करते हैं कि आप्तमीमांसामें अहेतुवाद रूप स्याद्वाद आगम और हेतुवाद रूप नय इन दोनोंसे अलंकृत हो रहे तत्वज्ञानको प्रमाण कहते हुये श्री समन्तभद्र आचार्यके सन्मुख हेतुके लक्षणकी जिज्ञासा प्रकट किये जानेपर शिष्यके प्रति स्वामीजीने " सधर्मणैव साध्यस्य साध
दिविरोधतः " स्याद्वादप्रविमकार्थविशेषव्यञ्जको नयः" इस कारिका द्वारा हेतुका लक्षण कहा है। इसको नयका परिशुद्ध लक्षण तो नहीं मानना चाहिये । किसी प्रकरण वश कही गयी बातका अन्य प्रकरणोंमें भी वही अर्थ लगा लेना समुचित नहीं है । इस प्रकार कोई आक्षेप कर रहे हैं । अब आचार्य कहते हैं कि उनका वह कहना युक्तिरहित है। क्योंकि हेतुकी स्याद्वाद करके प्रविभक्त किये गये सकल अर्थके विशेषकी व्यक्त ज्ञप्ति कराने के लिये सामर्थ्य नहीं है। भले ही उपचारसे हेतुको ज्ञापक कह दिया जाय । किन्तु उपचारके सिवाय वस्तुतः ज्ञापक तो चेतम ज्ञान ही होते हैं। हेतुसे उत्पन्न हुये बोधकी प्रधानरूपसे व्यंजना करनेवाला वह नय ज्ञान ही युक्त हो सकता है। अथवा हेतुसे उत्पन्न हुये ज्ञानका व्यंजक प्रधानरूपसे ही कार्यको करनेवाला कारण हो सकेगा और वह ज्ञानात्मक नय ही हो सकता है । क्योंकि करण भात्मक अपने और कर्मस्वरूप अर्यके एक देशका व्यवसाय करना स्वरूप नय होता है। इस प्रकार हम पहिले " प्रमाणनयैरधिगमः " सूत्रकी चौथी वार्तिकमें कह चुके हैं । अतः नय आत्मक हेतु ज्ञान तो साध्यका ज्ञापक है । जड हेतु ज्ञापक नहीं है । कचित् हेतु ज्ञानका अवलम्ब कारण हेतु मान लिया गया है। यथार्थरूपसे विचारा जाय तो ज्ञापकपक्षमें नय ही हेतु पडता है। क्योंकि साध्य अर्थनयस्वरूप हेतु करके ज्ञापित किया जाता है । अतः वह ज्ञानस्वरूप हेतुनयका ही लक्षण समझना चाहिये। जड हेतुका नहीं ।
नन्वेवं दृष्टेष्टविरुद्धनापि रूपेण तस्य व्यजको नयः स्यादिति न शंकनीयं " सधर्मजैव साध्यस्य साधादविरोधतः" इति वचनात् । समानो हि धर्मो यस्य दृष्टांतस्य तेन साधर्म्य साध्यस्य धर्मिणो मनागपि वैधाभावात् । ततोस्याविरोधेनैव व्यंजक इति निश्चीयते दृष्टान्तसाधाददृष्टांतोत्सरणादित्यनेन दृष्टविरोधस्य निवर्तनात् । न तु कयंचिदपि दृष्टांतवैधाददृष्टवैपरीत्यादित्यनेनेष्टविरोधस्य परिहरणात् दृष्टविपरतिस्य सर्वथानिष्टत्वात् ।
___ यहां पुनः किसीकी शंका है कि इस प्रकार तो प्रत्यक्ष प्रमाणद्वारा देखे गये और अनुमान आदि प्रमाणोंसे इष्ट किये गये स्वरूपोंसे विरुद्ध हो रहे स्वरूपों करके भी उस अर्थकी व्यञ्जनारूप इप्ति करानेवाला ज्ञान नय बन बैठेगा ! इसपर आचार्य कहते हैं कि यों तो शंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि दृष्टान्त धर्मीके साथ इष्ट, अबाधित, असिद्ध स्वरूप साध्यका साधर्म्य हो जाने करके अविरोध रूपसे पदार्थ विशेषोंका ज्ञापक नयज्ञान है, ऐसा श्री समन्तभद्र भाचार्यने कहदिया है । जिस अन्वयदृष्टान्तका धर्म समान है, उसके साथ साध्यधर्मीका साधर्म्य होय । थोडा भी वैधर्म्य नहीं होना चाहिये । अर्थात्-निर्णीत किये गये दृष्टान्तके साथ प्रकरणप्राप्त साध्यका