Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
गुणः पर्याय एवात्र सहभावी विभावितः। इति तद्गोचरो नान्यस्तृतीयोस्ति गुणार्थिकः ॥८॥
गुणार्थिक नय न्यारा नहीं है। पर्यायार्षिकमें उसका अन्तर्भाव हो जाता है । पर्यायका सिद्धान्त लक्षण " अंशकल्पनं पर्यायः " है, वस्तुके सद्भूत अंशोंकी कल्पना करना पर्याय है। द्रव्यके द्वारा हो रहे अनेक कार्योंको ज्ञापक हेतु मानकर कल्पित किये गये परिणामी नित्य गुण तो वस्तुके साथ रानेवाले सहभावी अंश हैं । अतः षट्स्थानपतितहानि वृद्धिओं से किसी भी एकको प्रतिक्षण प्राप्त हो रहे, अविभाग प्रतिच्छेदोंको धारनेवाली पर्यायों करके परिणमन कर रहे रूप, रस, चेतना, सुख, अस्तित्व, वस्तुत्व, आदिक गुण तो यहां सहभाबी पर्यायस्वरूप ही विचार लिये जा चुके हैं। इस कारण उन गुणोंको विषय करनेवाला भिन तीसरा कोई गुणार्थिक नय नहीं है। मावार्थ-पर्यायोंका पेट बहुत बड़ा है। द्रव्यके नित्य अंश गुण और उत्पाद व्यय ध्रौव्य, स्वप्रकाशकत्व, परप्रकाशकत्व, एकत्व, अनेकत्व, आदिक स्वभाव अविभाग प्रतिच्छेद ये सब पर्यायें हैं । एक गुणकी क्रममावी पर्याय एक समयमें एक होगी। जो कि अनेक अविभाग प्रतिच्छेदोंका समुदायरूप भाव अंश है। हां, स्वभावोंकी भित्ति परव्यपदेश किये जा रहे उत्पाद व्यय, ध्रौव्य, वा छोटापन बडापन ये पर्यायें तो एक साथ भी कई हो जाती है। जैसे कि एक समयमें मात्र फल हरा है । द्वितीय समयमें पीला है, पहिले समय आत्मामें दर्शन उपयोग है। दूसरे समय मतिज्ञान उपयोग है । रूपगुण या चेतना गुणकी ये उक्त पर्यायें क्रमसे ही होगी। एक समयमें अविभाग प्रतिच्छेदवाली दो पर्यायें नहीं हो सकती है। हां, हरितपनका नाश पीतताका उत्पाद और वर्ण सहितपनकी स्थिति ये तीनों पर्यायें पीत अवस्थाके समय विद्यमान हैं । कोई विरोध नहीं है । एक गुणकी अविभाग प्रतिच्छेदवाली दो पर्यायोंका एक समयमें विरोध है । इसी प्रकार गुणके सर्वथा प्रतिपक्षी हो रहे दूसरे गुणका एक द्रव्यमें सदा रहनेका विरोध है। जैसे कि पुद्गलमें रूप गुण है, रूपाभाव गुण पुद्गलमें कमी नहीं है । आत्मामें चेतना गुण, अचैतन्य गुण नहीं। धर्म द्रव्यमें गति हेतुत्व नामका भाव आत्मक अनुजीवी गुण है । अतः धर्मद्रव्यमें स्थितिहेतुत्व गुण नहीं पाया जा सकता है। बात यह है कि वस्तुद्वारा हो रहे कार्योकी अपेक्षा वस्तुमें गुण जुडे हुये माने जाते हैं। संसारमें किसी भी वस्तुसे विरुद्ध कार्य नहीं हो रहा है। अतः अनुजीवी दो विरुद्ध गुण एक द्रव्यमें कभी नहीं पाये जाते हैं। ये जो नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, बनेकत्व, आपेक्षिक हलकापन, भारीपन, अधिक मीठापन, न्यून मीठापन आदि स्वभाव, एक समयमें देखे जा रहे हैं, वे सब तो सप्तमंगीके विषय हो रहे स्वभाव है। नित्य परिणामी हो रहे अनुजीवी गुण नहीं है । वस्तुमें अनुजीवी विरुद्ध दो गुणोंको टिकनेके किये स्थान नहीं है । विरुद्ध सारिख दीखते हुये, धर्म वा स्वमाव चाहे जितने ठहर जाओ। विचारिये