Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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स्वार्थकोकवार्तिके
मन्तव्यकी अपेक्षा यह सिद्धान्त अच्छा है कि द्वितीया, तृतीया, आदिक तिथियों में स्वभावसे ही चन्द्रमाका उतना, उतना कमती प्रकाश आत्मक परिणाम होता है । चमकीले पदार्थों में सूर्य, रंगे हुये वस्त्र, दर्पण, अन्धकार, छाया, आदिसे कान्तिका विपरिणाम हो जाता है । यह ठीक है । फिर भी बहिरंग पदार्थोंकी नहीं अपेक्षा करके भी सुवर्ण, मोती, गिरगिटका शरीर, बलिष्ठ मनुष्य, अनेक प्रकारकी कान्तियोंको बदलता रहता है। शरीरसौन्दर्य कावण्य भी नये नये रंग छाता है । " प्रतिक्षणं यद्भवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः " । इन कार्यों में कारणोंकी अपेक्षा अवश्य है । क्योंकि विना कारणोंके कार्य होते नहीं हैं। फिर भी प्रसिद्ध हो रहे कान्तिके कारणोंका व्यभिचार देखा जाता है । अतः चन्द्रमाके स्वाभाविक उतनी उतनी कान्तिके समान शद्वकी स्वाभाविक शक्तिके अनुसार तिस प्रकार नयाः कह देने से चारों वाक्य उसके पेटमें गतार्थ हो जाते हैं । चन्द्रकी कान्तिके प्रथम पक्ष समान शद्वका पहिला पक्ष एकशेष भी गर्ह्य नहीं है ।
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अत्र वाक्यभेदे नैगमादेरेकस्य द्वयोश्व सामानाधिकरण्याविरोधाच्च गृहा ग्रामः देवमनुष्या उभौ राशी इति यथा ।
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अधिकरण
इस सूत्र वाक्योंका भेद करनेपर नैगम आदिक एकका और दोका नय शद्वके साथ समान 'अधिकरणपने का अविरोध हो जानेसे तिस प्रकार सूत्रवचन में कोई विरोध नहीं जाता है । जैसे कि अनेक गृह ही तो एक ग्राम है । सम्पूर्ण देव और मनुष्य ये दोनों दो राशि हैं। यहां और " सु " ऐसे न्यारे वचन के होते हुये भी अनेक गृहका एक प्रामके साथ समान पना निर्दोष माना गया है । " देवमनुष्याः " शद्व बहुवचनान्त है । और राशी द्विवचनान्त है । दोनोंका उद्देश्य विधेय भाव बन जाता है । उसी प्रकार " नैगमादयो नयः " " नैगमादयो नयौ ” " नैगमादयो नयाः इस प्रकार भिन्न वाक्य बनानेपर उद्देश्य बिधेय दलके शाद्वबोध करने में कोई हानि नहीं आती है।
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नन्वेवमेकत्व द्वित्वादिसंख्यागतावपि कथं नयस्य सामान्यलक्षणं द्विधा विभक्तस्य तद्विशेषणं विज्ञायत इत्याशंकायामाह ।
यहां शंका है कि इस प्रकार नयः, नयौ, नयाः, इस वाक्यभेद करके एकपन, दोपन, आदि संख्याका ज्ञान हो चुकनेपर भी द्रव्य और पर्याय इन दो प्रकारोंसे विभक्त किये गये नयका सामान्य लक्षण उनका विशेषण है, यह विशेषतया कैसे जाना जा सकता है ? ऐसी आशंका होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य स्पष्ट उत्तर कहते हैं ।
नयनां लक्षणं लक्ष्यं तत्सामान्यविशेषतः ।
नीयते गम्यते येन श्रुतार्थांशो नयो हि सः ॥ ६ ॥