Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थश्लोक वार्तिके
सामान्यस्य पृथक्त्वेन द्रव्यादनुपपत्तितः । सादृश्यपरिणामस्य तथा व्यंजनपर्ययात् ॥ ११ ॥ वैसादृश्यविवर्तस्य विशेषस्य च पर्यये ।
अंतर्भावाद्विभाव्येत द्वौ तन्मूलं नयाविति ॥ १२ ॥
२२४
1
नैगम आदि सात नयोंके मूलकारण द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो नय हैं, किन्तु द्रव्यको, पर्यायको, सामान्यको, और विशेषको, चारों ओरसे समझानेवाली चार नयें ही नैगम आदिकों के मूल कारण नहीं हैं । तिस कारण दो नयोंको मूळ मानना चाहिये । सामान्यार्थिक नय मानना आवश्यक नहीं है । द्रव्यसे पृथकाने करके सामान्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है। क्योंकि जैन सिद्धान्तमें अनेक समान जातीय पदार्थोंके सदृशपने से हो रहे परिणामको सामान्य पदार्थ माना है । और तिस प्रकारका सदृश परिणाम तो द्रव्यकी व्यंजन पर्याय है । अनेक सदृश परिणामोंका पिंड हो रहा सामान्य पदार्थ तो द्रव्यार्थिक नय द्वारा ही जान लिया जाता है। अतः सामान्यार्थिक कोई तीसरा नय नहीं है। परीक्षा नुखमें " सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् " परापर विवर्त व्यापि द्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु खंड, मुण्ड, कपिला, धेनु, आदि अनेक गौओंमें रहनेबाले गोके समान तिर्यक् सामान्य अनेक घट, कलश आदि में सदृश परिणामरूप वर्त रहा है । यह द्रव्यस्वरूप ही है । तथा द्रव्यको पूर्वापर पर्यायोंमें व्यापनेवाला ऊर्ध्वता सामान्य है । जैसे कि स्थास, कोश, कुशूल आदि पर्यायों में मुक्तिका ऊर्ध्वता सामान्य है । अथवा बाल्य, कुमार, यौवन, नारकी, पशु, देव, आदि पर्यायोंमें आत्मा द्रव्य ऊता सामान्य पडता है । ये दोनों सामान्यद्रव्य स्वरूप हैं । अतः द्रव्यार्थिक नयके विषय हैं । तथैव विसदृशपनरूप करके परिणाम हो रहे विशेषका पर्याय अन्तर्भाव हो जाता है । अतः विशेषका पर्यायार्थिक नय द्वारा भान हो जावेगा । चौथे विशेषार्थिक नयके माननेकी आवश्यकता नहीं है । श्री माणिक्यनन्दी आचार्य कहते हैं कि " एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्यायाः आत्मनि हर्षविषादादिवत् " " अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् " एक द्रव्यमें क्रम से होनेवाले परिणाम तो पर्याय नामके विशेष हैं, जैसे कि आत्मामें हर्ष, विवाद, आदि विशेष हैं । और न्यारे न्यारे अर्थो में प्राप्त हो रहा विलक्षणपनेका परिणाम है, यह व्यतिरेक नामका विशेष है । जैसे कि गाय, भैंस, घोडा, हाथी, आदि में विशेष है । ये सभी विशेष पर्यायोंमें अन्तर्भूत हो जाते हैं । इस कारण उन द्रव्य और पर्यायोंको मूळ कारण मानकर उत्पन्न हुये द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो ही मूल नय विचार लिये गये हैं । चार मूळ नय नहीं हैं । शाखायें चाहे जितनी बनालो अपने अभिप्रायों अनुसार घरकी बात है ।
1