Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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यदि तु यथा तवोवयवास्तद्वानवयवी पटस्तयोरपि तंतुपटयोर्नान्योस्ति तद्वांस्तस्याप्रतीयमानत्वात् । तथा पर्यायाः स्वभावास्तद्वद् द्रव्यं तयोरपि नान्यस्तद्वानस्ति प्रतीतिविरोषादिति मतिस्तदा प्रधानभावेन द्रव्यपर्यायात्मकवस्तुप्रमाणविषयस्ततोपोध्टतं द्रव्यमात्रं द्रव्यार्थिक विषयः पर्यायमात्रं पर्यायार्थिकविषय इति न तृतीयो नयविशेषोस्ति यतो मूळनयस्तृतीयः स्यात् । तदेवम् ।
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यदि आप शंकाकार यह सिद्धान्त समझ चुके हो कि जिस प्रकार तन्तु तो अवयव हैं । और उन तन्तुरूप अवयवोंसे सहित एक न्यारा अवयवी पट द्रव्य है । फिर उन दोनों तन्तु और पटका भी तद्वान् कोई तीसरा न्यारा आश्रय नहीं है। क्योंकि तीसरी कोटिपर जानकर कोई न्यारे उस अधिकरण की प्रतीति नहीं हो रही है । तिसी प्रकार पर्यायें तो स्वभाव हैं। और उन पर्यायोंसे सहित हो रहा पर्यायवान् द्रव्य है । किन्तु फिर उन दोनों पर्याय और द्रव्योंका उनसे सहित होता हुआ कोई न्यारा अधिकरण नहीं है । क्योंकि प्रतीतियोंसे विरोध होता है । अनवस्था दोष भी है । अतः तन्तुवान् पटका जैसे कोई तीसरा अधिकरण न्यारा नहीं है । उसी प्रकार द्रव्य और पर्यायोंका अधिकरण भी कोई न्यारा नहीं है । आचार्य कह रहे हैं कि इस प्रकार मन्तव्य होय तब तो बहुत अच्छा है । देखो प्रधान रूपसे द्रव्य और पर्यायके साथ तदात्मक हो रहे वस्तुको प्रमाण ज्ञान विषय करता है । उस अखंड पिंडरूप वस्तुसे बुद्धिद्वारा पृथग् भावको प्राप्त किया गया केवल नित्य अंश द्रव्य तो द्रव्यार्थिक नयका विषय है । और प्रमाणके विषय हो रहे वस्तुसे ज्ञान द्वारा अपोद्धार ( पृथग् - भाव ) किया गया केवळ पर्याय ( मात्र ) तो पर्यायार्थिक नयका विषय है । अब नयोंके द्वारा जानने योग्य द्रव्य और पर्यायोंसे न्यारा कोई तीसरा " तद्वान् " पदार्थ शेष नहीं रहजाता है । जिसको कि विशेषरूप से जानने के लिये तीसरा मूलनय माना जावे। हां, जो वस्तु प्रमाणसे जानी जारही है, वह तो प्रमेय है । अंशोंको जाननेवाले नयों करके " नेय " नहीं हैं । जैन सिद्धान्त अनुसार द्रव्य और पर्यायोंसे कथंचित् भेद, अभेद, आत्मक वस्तु गुम्फित हो रही है । तिस कारण इस प्रकार सिद्धान्त बन जाता है । सो सुनिये ।
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प्रमाणगोचरायांशा नीयते यैरनेकधा ।
ते नया इति व्याख्याता जाता मूलनयद्वयात् ॥ ९ ॥
जिन ज्ञानोंकरके प्रमाणके विषय हो रहे अर्थके अनेक अंश अभिप्रायों द्वारा जानकिये जाते हैं, वे ज्ञान नय हैं । और वे नय मूलभूत द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो नयोंसे प्रतिपन्न होते हुये अनेक प्रकारके बखान दिये जाते हैं ।
द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषपरिबोधकाः ।
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न मूलं नैगमादीनां नयाश्चत्वार एव तत् ॥ १० ॥