Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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कि पुद्गल द्रव्यमें रूप नामक नित्य गुणके समान यदि रूपामाष मी गुण जडा हुआ हो तो रूपगुण विचारा पुद्गलको नीले, पीले रंगसे परिणाम करावेगा और उसके विरुद्ध रूपाभाव तो पुद्गलको आकाशके समान सर्वथा नीरूप बनाये रखनेका अटूट परिश्रम करेगा। ऐसी विरुद्धोंके साय लडाईमें गुणोंके समुदाय पुद्गल द्रव्यका नाश हो जाना अनिवार्य है । पोखरमें साँडोंकी लडाई होनेपर मेंडकोंपर आपत्ति आ जाती है । इसी प्रकार चैतन्य, अचैतन्यके कार्योंमें वध्यघातक विरोध पड जानेसे द्रव्योंका नाश अवश्यम्भावी हो जावेगा जो कि अनिष्ट है । अतः द्रव्यमें अक्षुण्ण जुडे हुये अविरुद्ध परिणामी हो रहे नित्य गुण उसके अंश हैं। वे पर्यायार्थिक नयसे विषय कर लिये जाते हैं । उन गुणोंका अखण्ड पिण्ड नित्यद्रव्य तो द्रव्यार्थिक नयका विषय है।
पर्यायो हि द्विविधा, क्रमभावी सहभावी च । द्रव्यमपि विविधं शुद्धाशुद्धं च । तत्र संक्षेपशद्ववचने द्वित्वमेव युज्यते, पर्यायशद्वेन पर्यायसामान्यस्य स्वव्यक्तिन्यापिनोभिधानात् । द्रव्यशद्धेन च द्रव्यसामान्यस्य स्वशक्तिव्यापिनः कथनात् । ततो न गुणः सहभावी पर्यायस्तृतीयः शुद्धद्रव्यवत् ।
___ कारण कि पर्यायार्थिक नयका विषय हो रहा पर्याय दो प्रकारका है। एक क्रमक्रमसे होनेवाला बाल्य, कुमार, युवा, वृद्ध, अवस्थाके समान क्रममावी है। दूसरा शरीरके हाथ, पांव, पेट, नाक, कान, आदि अवयवोंके समान सहभावी पर्याय है, जो कि अखंडग्यकी नित्य शक्तियां हैं। तथा द्रव्यार्यि नयका विषय द्रव्य भी शुद्ध द्रव्य और अशुद्ध द्रव्यके भेदसे दो प्रकारका है । धर्म, अधर्म,आकाश,काल, तो शुद्ध द्रव्य ही है। हां, जीवद्रव्यमें सिद्ध भगवान् और पुद्गलमें परमाणु शुद्ध द्रव्य कहे जा सकते हैं । सजातीय दूसरे पुद्गल और विजातीय जीव द्रव्यके साथ बन्धको प्राप्त हो रहे घट, पट, जीवितशरीर आदिक अशुद्ध पुद्गल द्रव्य हैं। तथा विजातीय पुद्गल द्रव्यके साथ वंध रहे संसारी जीव अशुद्ध जीव द्रव्य हैं । यद्यपि अशुद्ध द्रव्य दो द्रव्योंकी मिली हुई एक विशेष पर्याय है। फिर भी उस मिश्रित पर्यायके अनेक गुण प्रतिक्षण भाव पर्यायोंको धारते हैं । अतः गुणवान होनेसे वह द्रव्य माना जाता है । तिस नयके संक्षेपसे विशेष भेदोंको कहनेवाले तीसरे वार्तिको " संक्षेपसे " ऐसा शब्द प्रयोग करनेपर उस नय शद्बमें द्विवचनपना ही उचित हो रहा माना जाता है। पर्याय शब्द करके अपनी नित्य अंश गुण, क्रममावी पर्याय, कल्पितगुण, स्वभाव, धर्म, अविभागप्रतिच्छेद, इन अनेक व्यक्तियोंमें व्यापनेवाले पर्यायसामान्यका कथन हो जाता है। और द्रव्य शब्दकरके अपनी नित्य, अनित्य शक्तियोंके धारक शुद्ध, अशुद्ध द्रव्योंमें न्यापनेवाले द्रव्यसामान्यका निरूपण हो जाता है। अशुद्ध द्रव्यकी नियत कालतक परिणमन करनेवाली पर्याप्ति, योग, दाहकत्व, पाचकत्व, आकर्षणशक्ति मारणशक्ति, आदि पर्याय शक्तियोंको यहां अनित्य शक्तियां पदसे पकडलेना चाहिये । जबकि पर्याय शब्दसे सभी पर्यायोंका ग्रहण होगया । तिस कारण सहभावी पर्याय हो रहा नित्य गुण कोई तीसरा नेय विषय नहीं है, जैसे कि शुद्ध द्रव्य