Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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यदि अद्वैतवादी यों कहें कि जैसे आत्मासे मिन कल्पित किये गये पट भादिक कार्य भिन्न पदार्थपने करके प्रतिमास रहे हैं, उसके समान नियोग तो मिन पदार्थपने करके नहीं प्रतिभास रहा है । तथा नियोगको प्राप्त किये गये श्रोता पुरुष या यज्ञ आदि विषयके धर्मपने करके या नियोग करनेवाले वेदवाक्यका धर्मस्वरूप करके वह नियोग व्यवस्थित नहीं हुआ है। अर्थात्जैसे नियुज्यमान पुरुषका धर्म होकर या नियोक्ताका धर्म होकर पट दीख रहा है, वैसा नियोग नहीं है । अतः दो हेतुओंसे नियोगकी व्यवस्था नहीं होनेसे नियोग वाक्यका अर्थ नहीं है, इस प्रकार विधिवादियोंके कहनेपर तो हमें कहना पडेगा कि वह कटाक्ष तो दूसरोंके यहां भी यानी तुम विधिवादियों के ऊपर भी समानरूपसे लग जाता है । विधिका भी घट आदिके समान पुरुषसे पृथक् पदार्थपने करके नहीं प्रतिभास होता है । तथा विधान करने योग्य दर्शन आदि या दृष्टव्य विषयका धर्म अथवा विधिको कहनेवाले बैदिक शद्वके धर्मपने करके विधिकी व्यवस्था नहीं हो रही है । अतः विधि भी वाक्यका अर्थ नहीं सिद्ध हो पाता है। ____ यथैव हि नियोज्यस्य पुंसो धर्मे नियोगे अननुष्ठेयता नियोगस्य सिद्धत्वादन्यथानुष्ठानोपरमाभावानुषंगात् । कस्यचित्तद्रूषस्यासिद्धस्याभावाद, असिद्धरूपतायां वा नियोज्यत्वविरोधाएंध्यास्तनंषयादिवत् । सिद्धरूपेण नियोज्यत्वे असिद्धरूपेण धानियोज्यता: मेकस्य पुरुषस्यासिदसिद्धरूपसंकरानियोज्येतरत्व विभागासिद्धस्तद्रूपासंकरे वा भेदपसंगादात्मनः सिद्धासिद्धरुपयोः संवधाभाषोऽनुपकारात् । उपकारकल्पनायामात्मनस्तदुपकायस्वे नित्यवहानिस्तयोरात्मोपकार्यत्वे सिद्धरूपस्य सर्वथोपकार्यत्वव्याघातोऽसिद्धरूपस्याप्युपकार्यत्वे गगनकुसुमादेपकार्यत्वानुपंगः । सिद्धासिद्धरूपपोरपि कथंचिदसिद्धरूपोपगमे प्रकृतपर्यनुयोगानिवृत्तेरनवस्थानुपंग इत्युपालंभः।
" यथैव " का अन्वय छह, सात, पंक्ति पीछे आनेवाले तथा शब्दके साथ करना चाहिये । श्री विद्यानन्द आचार्य नियोग और विधि दोनोंको ही नियोज्य या विर्धायमान पुरुषका धर्म तथा यागलक्षण विषय या विधेय विषयका धर्म एवं विधायक या नियोक्ता शब्दका धर्म न हो सकना ऍकसा बताये देते हैं । देखिये, जिस ही प्रकार नियोजने योग्य पुरुषका धर्म यदि नियोग माना जावेगा तो बद्वैतवादियोंकी ओरसे प्रामाकरोंके उपर नहीं अनुष्ठान करने योग्यपन आदि दोष धर दिये जाते हैं । यानी नियोज्य पुरुष बनादि कालसे स्वतः सिद्ध नित्य है तो उस आत्माका स्वभाव नियोग भी पूर्वकालोंसे सिद्ध है। अन्यथा यानी सिद्ध हो चुके पदार्थका भी अनुष्ठान किया आयगा तो अनुष्ठान करनेसे विराम लेनेके अभावका प्रसंग होगा । कृतका पुनः करण होने लगेगा तो सदा विधान होता ही रहेगा, किया जा चुका पदार्थ पुनः किया जायगा और फिर भी किया जा चुका किया जायगा । कमी भी विश्राम नहीं ले सकोगे । चर्वितका चर्वण अनन्तकालतक करते रहो।