Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
वाक्योंकरके मैं याग आदि विषयोंमें नियुक्त हो गया हूं, इस प्रकारकी प्रतीति क्या मर गई है। अब विद्यमान नहीं है, जिससे कि विधिवादियों करके नियोगका खण्डन किया जा रहा है। यदि विधिवादी यों कहें कि वह नियुक्तपनेको कह रही प्रतीति तो प्रमाण नहीं है। इस प्रकार विधिवादियोंके कहनेपर तो हम जैन भी कह देंगे कि तुम्हारी विधिको प्रतिपादन कर रही विहितपमेकी प्रतीति भी अप्रमाण क्यों नहीं हो जावेगी ! तुम्हारी प्रतीतिमें प्रमाणपनेका प्रकाशक क्या कोई रत्न जडा हुआ है ! इसपर विधिवादी यदि यों कहें कि पुरुषोंके राग, द्वेष, अज्ञान, आदि दोषोंसे रहित हो रहे अनादि, अकृत्रिम, वेदवाक्योंसे उत्पन्न हुई होनेके कारण विधिकी प्रतीति तो प्रमाणभूत है। इस प्रकार कहनेपर तो नियोगवादी भी कह सकते हैं कि तिस ही कारण यानी पुरुषोंके दोषोंसे कोरे बचे हुये अपौरुषेय वैदिक वचनोंसे उपजी हुई नियोगकी प्रीति भी अप्रमाण मत होको । सभी प्रकारोसे नियोगकी अपेक्षा विधिमें कोई विशेषता नहीं है। तिस प्रकार होनेपर भी नियोगको विषयका धर्म होना नहीं सम्मवता मानोगे तो उस अपने विषयके धर्म माने जा रहे विधिकी मी सम्भावना नहीं हो सकती है। यहांतक नियोज्य पुरुष और यागस्वरूप विषयके धर्म नियोगका विधाप्यमान पुरुषके अथवा विधेयके धर्म हो रहे विधिके साथ सम्पूर्ण अंशोंमें सादृश्य बता दिया है। अब तीसरे विधायक शब्द या नियोजक शब्दके धर्म माने जा रहे विधि और नियोगकी समानताको श्री विद्यानन्द आचार्य स्वकीय विद्वत्ताका चमत्कार दिखलाते हुये कहते हैं, अवधान लगाकर सुनिये।
शब्दस्प विधायकस्य च धर्मो विधिरित्यपि न निश्चेतुं शक्यं, नियोगस्यापि नियोक्तृशब्दधर्मत्वप्रतिघाताभाषानुषक्तेः । शब्दस्य सिद्धरूपत्वात्तद्धर्मो नियोगः कथमसिद्धो येनासी संपाद्यते कस्यचिदित्यपि न मन्तव्यं, विधिसंपादनविरोधात् सस्यापि सिद्धोपनिषद्वाक्यधर्मत्वाविशेषात् । प्रसिद्धस्यापि संपादने पुनः पुनस्तत्संपादने प्रवृश्यनुपरमात्कथमपनिषद्वचनस्य प्रमाणता अपूर्वार्थताविरहात् स्मृतिवत् । सस्य वाप्रमाणत्वे नियोगवाक्यं प्रमाणमस्तु विशेषाभावात् ।
दर्शन बादिका विधान कर रहे " दृष्टव्योरेयमात्मा " इत्यादिक शब्दका धर्म विधि है, इस प्रकार भी विधिवादियोंद्वारा निश्चय नहीं किया जा सकता है। फिर भी यदि विधायक शब्दके धर्म माने गये विधिका निश्चय कर लेंगे तो नियोगको भी "विश्वजिता यजेत" "ज्योतिष्टोमेन यजेत" इत्यादिक नियोक्ता शब्दोंके धर्मपनका प्रतिघात नहीं हो सकनेका प्रसंग होगा। अर्थात् नियोक्ता शब्दोंका धर्म नियोग जान लिया जायगा । यदि विधिवादी यों कटाक्ष करें कि शब्दको कूटस्थ नित्य माननेवाले मीमांसकोंके यहां शब्दका परिपूर्ण रूप सिद्ध है । अतः उस . शब्दका धर्म नियोग भळा बसिद्ध कैसे होगा ! जिससे कि वह नियोग कर्मकाण्ड वाक्योंद्वारा किसी भी श्रोताके यहाँ