Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
२०१
शुद्धकार्यप्रेरणादिषु स्वाभिप्रायात् कस्यचित्प्रधानभावेपि पराभिप्रायात्प्रधानत्वाभावादन्यतरस्यापि स्वभावस्याव्यवस्थितेनैकस्यापि शब्दार्थत्वमिति चेत्, तर्हि पुरुषाद्वैतवाद्याशयवशाद्विधेः प्रधानत्वेपि ताथागतमताश्रयणादप्रधानताघटनात् सोपि न प्रतिष्ठामटाव्येत विप्रतिपत्तिसद्भावाविशेषात् ।
विधवादी कहते हैं कि शुद्ध कार्य, शुद्ध प्रेरणा आदिमें प्राभाकरोंके अपने अभिप्रायसे किसी एकको प्रधानपना होते हुये भी दूसरे भट्ट वेदान्ती, बौद्ध आदिकोंके अभिप्रायसे प्रधानपना नहीं eate किया गया है । अतः शब्दके उन प्रधान अप्रधान दोनों अर्थोंमेंसे किसी एक भी स्वभाव रूप नियोगकी व्यवस्था नहीं हो पाती है । अतः एकको भी शब्दका वाध्यार्थपना नहीं है। इस प्रकार विधिवादियों के कहनेपर आचार्य कहते हैं कि तब तो पुरुषाद्वैतवादीके आशय के बशसे विधि को प्रधानपना होते हुये भी बौद्धमतके आश्रय से विधिको अप्रधानपना घटित हो रहा है । अतः वह विधि भी प्रतिष्ठाको अतिशयरूप से प्राप्त नहीं हो पाती है। क्योंकि कई दार्शनिकोंकी ओर से विवादोंका उपस्थित होकर खडा हो जाना विधि और नियोग दोनों में अन्तर रहित है । समान Resortथाको अवनत शिरसा पक्षपातरहित होकर एकसा स्वीकार कर लेना चाहिये ।
1
प्रमाणरूपश्च यदि विधिः तदा प्रमेयमन्यद्वाच्यं । तत्स्वरूपमेष प्रमेयमिति चेत्, कथमस्यार्थद्वयरूपता न विरुध्यते १ कल्पनयेति चेत्, तर्ह्यन्यापोहः शब्दार्थः कथं प्रतिषिध्यते १ अप्रमाणत्वव्याघृश्या विधेः प्रमाणत्ववचनादप्रमेयत्वव्याषृश्या च प्रमेयत्वपरिकल्पनात् । प्राभाकरोंद्वारा माने गये नियोगमें जैसे विधिवादी द्वारा प्रमाण, प्रमेय आदिक विकल्प उठाये गये थे, उसी प्रकार अद्वैत ब्रह्मको माननेवाले विधिवादियोंके ऊपर भी आचार्योंद्वारा विकल्प उठाये जाते हैं कि विधिको यदि प्रमाणस्वरूप माना जायगा तो उस समय उस प्रमाणरूप विधि करके जानने योग्य प्रमेय पदार्थ कोई न्यारा कहना पडेगा । ऐसी दशा में प्रमाण और प्रमेय दो पदार्थोंका द्वैतपना प्राप्त होगा, जो कि आपके सिद्धान्तसे विरुद्ध है । यदि उस विधिस्वरूप ही प्रमेय पदार्थ माना जायगा, तब तो स्वभावोंसे रहित हो रही इस एक निरंश विधिको प्रमाण और प्रमेय दो पदार्थस्वरूपपना क्यों नहीं विरुद्ध हो जावेगा ? बताओ । यदि अद्वैतवादी यों कहें कि एक ही पदार्थ में कल्पना करके दो पदार्थ प्रमाण, प्रमेयपना बन सकता है। कोई विरोध नहीं है, इसपर हम जैन कहेंगे कि तब तो बौद्धोंकरके माना गया शब्दका अर्थ अन्यापोह तुम अद्वैतवादियों करके क्यों प्रतारणपूर्वक निषेधा जा रहा है ? अप्रमाणपनेकी व्यावृत्तिसे विधिको प्रमाणपना कह देना चाहिये | और अप्रमेयपनकी व्यावृत्तिकरके प्रमेयपना धर्म गढ लेना चाहिये । वस्तुतः प्रमेयत्व और अप्रमाणत्व तभी सुरक्षित रह सकते हैं, जब कि उनको अप्रमाणपन और अप्रमेयपन होनेसे व्यास किया जाता रहे । अन्यथा उस प्रमाण में या प्रमेयमें अप्रमाणपन या अप्रमेय
26