Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
विना योग्य व्यवहार
करते हुये ही प्रवृत्ति
चटाई से मिन पट, घट, मुकुट, आदि अप्रकृतक अर्थोकी व्यावृत्ति किये मार्ग में उतार नहीं सकते हो । भावार्थ - नियत कार्यों में तभिन्नोंका निषेध होना बनता है । इस दोषको टालनेके लिये द्वितीय पक्ष अनुसार यदि विधिवादी अन्योंका परिहार करनेसे सहित हो रही विधिको शद्वका अर्थ मानेंगे, इस प्रकार कइनेपर तो शद्वका अर्थ विधि और निषेध उभय आत्मक सिद्ध हुआ । इस कारण तुम विधिवादियों की केवल विधि एकान्तके पक्ष परिग्रहकी मा प्रतिष्ठा कहा से हुई ? जैसे कि बौद्धोंके केवल प्रतिषेध करनेको वाक्यका अर्थ माननेके पक्षकी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है। अर्थात् - विधि और निषेध दोनों ही शद्वके अर्थ व्यवस्थित हुये । केवल विधि और केवल निषेध तो वाक्यके अर्थ नहीं ठहरे ।
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स्यान्मतं, परपरिहारस्य गुणीभूतत्वाद्विधेरेव प्रवृत्यंगत्वे प्राधान्याद्विधिः शद्वार्थ इति । कथमिदानीं शुद्धकार्यादिरूपनियोगव्यवस्थितिर्न स्यात् ? कार्यस्यैव शुद्धस्य प्रवृत्यंगतया प्रधानत्वोपपत्तेः, नियोज्यादेः सतोपि गुणीभावात् । तद्वत्प्रेरणादिव भावनियोगवादिनां प्रेरणादौ प्रधानताभिप्रायात् । तदितरस्य सतोपि गुणीभावाध्यवसायाद्युक्तो नियोगः शब्दार्थः ।
करना शद्वोंद्वारा अशक्य
सम्भव है विधिवादियों का यह मन्तव्य होवे कि यद्यपि परपदार्थोंका परिहार करना शद्वका अर्थ है, किन्तु वह परका परिहार गौण है । प्रधानपनेसे विधिको ही प्रवृत्तिका हेतुपना देखा जाता है । अन्य पदार्थ सैंकडों लाखोंका निषेध करनेपर भी श्रोताकी प्रवृत्ति इष्टकार्य में नहीं हो पाती है । क्योंकि परपदार्थ अनन्त हैं । अनन्तजन्मोंतक भी उनका निषेध है । हो, कर्तव्य कार्यकी विधि कर देनेसे नियुक्त पुरुषकी वहां तत्काळ प्रवृत्ति हो जाती है । अतः शद्वका प्रधानतासे अर्थ विधि है । अन्यका निषेध तो शद्वका गौण अर्थ है। इस प्रकार अद्वैतवादियों द्वारा स्वपक्षकी पुष्टि किये जानेपर आचार्य कहते हैं कि क्योंजी, अब यों शुद्ध कार्य, शुद्ध प्रेरणा, आदि स्वरूप नियोगकी व्यवस्था मला कैसे नहीं होवेगी । क्योंकि प्रवृत्ति करानेका मुख्य अंग होनेसे शुद्धकार्यको ही प्रधानपन बन जावेगा । और नियोज्य पुरुष, या विषय, आदिका विद्यमान होते सन्ते भी गौणपना मानलिया जावेगा । अर्थात् - शुद्धकार्य भी नियोगका अर्थ होगया । पुरुष, शद्ब, फल, आदिक वहां सभी विद्यमान हैं । फिर भी प्रधान होनेसे शुद्ध कार्यको नियोग कह दिया गया है। शेष सत्र अप्रधानरूपसे शद्वके वाध्य हो जाते हैं। उसके समान शुद्धप्रेरणा, कार्यसहिता प्रेरणा आदि स्वरूप नियोगको माननेवाळे प्राभाकरोंके यहां प्रेरणा आदिमें प्रधानपने का अभिप्राय है । और उनसे मिन्न पुरुष, फल आदि पदार्थोंके विद्यमान होते हुये भी उनको गौण रूपसे शद्वद्वारा जान लिया है । अतः नियोगको शद्वका अर्थ मानना समुचित है । फिर जान बूझकर मायाचारसे नियोगका प्रत्याख्यान क्यों किया जा रहा है !
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