Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वायचिन्तामणिः
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नियोग नित्य ही है, तो वेद वाक्योंद्वारा उसका नवीन प्रतिपादन क्या किया जारहा है ? यदि तुम नियोगवादी केवल पुरुषकी विधिका ही तिस प्रकार नियोग वाक्योंद्वारा प्रतिपादन या अज्ञात ज्ञापन करना स्वीकार करोगे तब तो नियोगवादियोंकी वेदान्त वादमें परिपूर्ण रूपसे प्राप्ति हो जाती है। तो फिर नाममात्रको भी नियोगवाद भला किस ढंगसे सिद्ध हो सका ? यानी नहीं ।
तदेतदसारं सर्वथा विधेरपि वाक्यार्थानुपपत्तेः । सोपि हि शब्दादेरद्रष्टव्यतादिव्यवच्छेदेन रहितो यदीष्यते तदा न कदाचित्प्रवृत्तिहेतुः, प्रतिनियतविषयविधिनांतरीयकत्वात् प्रेक्षावत्प्रवृत्तेः तस्य वा तद्विषयपरिहाराविनाभावित्वात् कटः कर्तव्य इति यथा । न हि क कर्तव्यताविधिस्तद्व्यवच्छेदमंतरेण व्यवहारमार्ग्यमवतारयितुं शक्यः । परपरिहारसहितो विधिः शद्बार्थ इति चेत्, तर्हि विधिप्रतिषेधात्मकशद्वार्थ इति कुतो विध्येकांतवादप्रतिष्ठा प्रतिषेधैकांतवादवत् ।
" स्यान्मतं " से प्रारम्भ कर “ नामेति ” तक विधिवादियोंने नियोगके ग्यारहों पक्षोंका प्रत्याख्यान करदिया है । अत्र नियोगवादी मीमांसकको सहायता देते हुये श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि यह प्रसिद्धि में आरहा उन विधिवादियोंका कथन निस्सार है । क्योंकि विचार किया जानेपर विधिको भी वाक्यका अर्थपना सभी प्रकारोंसे घटित नहीं हो पाता है। देखिये " दृष्टव्यो रेयमात्मा " इन शद्व, चेष्टा, आदिकसे हो रही आत्मा के दृष्टव्यपन, मन्तव्यपन, आदिकी वह विधि भी अदृष्टव्य, अमन्तव्यपन, आदिके व्यवच्छेद करके रहित है ? या उन दृष्टव्य आदिसे मिनकी व्यावृत्ति करनेवाली है ? बताओ । अर्थात् - यहां विधिवादियोंके ऊपर दो प्रश्न उठाये जाते हैं. कि जैसे घटक विधि अबटोंकी व्यावृत्ति करनेसे रहित है ? या घटभिन्न हो रहे पट आदिकों के व्यवच्छेद से सहित है- ? उसी प्रकार यहां भी बताओ । प्रथम पक्ष अनुसार यदि दृष्टव्य आदिकी विधिको अदृष्टव्य आदिके अपोह करनेसे रहित मानोगे तब तो वह किसी भी पुरुषकी प्रवृत्तिका कारण कभी नहीं हो सकेगी। क्योंकि हित अहितको विचारनेवाले पुरुषोंकी प्रवृत्तियां प्रतिनियत हो रहे विषयकी विधि के साथ अविमाभाव रखती हैं । अर्थात् - घटकी विधि यदि अघटोंकी व्यावृत्ति करेगी तब तो नियत हो रहे घटमें ही बुद्धिमान् पुरुष प्रवृत्ति करेंगे । अन्यथा जो कुछ भी कार्य शयन, रुदन, आलस्य, अध्ययन आदिको कर रहे थे, उसको करते हुये ही कृतकृत्य हो सकते हैं। घटको छानेका या बनानेका नया कार्य करना उनको आवश्यक नहीं रहा । क्योंकि परका परिहार तो नहीं किया गया है । अथवा यह बात निर्णीत है कि उन प्रकरण प्राप्त नहीं हो रहे अप्रतिनियत विषयोंके परिहार करनेका प्रेक्षावान् के उस प्रवर्तन के साथ अविनाभाव हो रहा है। जैसे कि चटाईको बुनना चाहिये, ऐसा निर्देश देनेपर मृत्यकी कटमें कर्तव्यपनकी विधिको तो उस