Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
फलरहितश्च विधिर्न प्रवर्तको नियोगवत् । सफलः प्रवर्तक इति चेत्, किंचिज्ज्ञानां फलार्थिनां फलाय दर्शनादेव ( फळोपदर्शनादेव ) प्रवृत्युपपत्तेः । पुरुषाद्वैते न कश्चित् कुतश्चित् प्रवर्तत इति चेत्, सिद्धस्तर्हि विधिरप्रवर्तको नियोगवदिति न वाक्यार्थः ।
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नियोग के समान विधिमें भी फलरहित और फलसहितपनेका विकल्प यों उठाया जाता है कि यदि विधि उत्तरकालमें होनेवाले फळसे रहित है, तब तो किसी भी श्रोताको प्रवृत्ति कराने बाकी नहीं हो सकती है, जैसे कि फलरहित नियोग प्रवर्तक नहीं माना गया था । यदि विधिवादीयों कहें कि फलों से सहित हो रही विधि प्रवर्तक है, तब तो हम जैन कहेंगे कि कुछ अल्प पदार्थोंको जाननेवाले अल्पज्ञ फळ अभिलाषी जीवोंकी फलप्राप्तिके लिये दर्शनसे ही या फल प्राप्ति की अभिलाषासे प्रवृत्ति होना सध जावेगा । विधिको प्रवर्तक कहना व्यर्थ है । फिर भी विधिवादी यों कहें कि भेदवादियों के यहां भले ही कोई कहीं किसीसे प्रवृत्ति करें, किन्तु हम अद्वैतवादियों के यहां ब्रह्माद्वैत में कोई भी किसीसे भी प्रवृत्ति नहीं करता है । इसपर हम जैन कहते हैं कि तब तो प्रवृत्ति नहीं करानेवाले नियोगके समान विधि भी वाक्यका अर्थ सिद्ध नहीं हुआ । फिर दूसरेपर ही कटाक्ष करना आप अद्वैतवादियोंने सीखा है । अपने दोष स्वयंको नहीं दीख रहे हैं ।
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पुरुषाद्वैतवादिनामुपनिषद्वाक्यादात्मनि दर्शनश्रवणानुमनननिध्यानविधाने प्यप्रवर्तने कुतस्तेषां तदभ्यासः साफल्यमनुभवति मत्तोन्मत्तादिमलापवत् कथं वा सर्वथाप्यप्रवर्तको विधिरेव वाक्यार्थो न पुनर्नियोगः ।
हम अद्वैतवादीसे पूंछते हैं कि यदि विधिको सर्वथा अप्रवर्तक माना जायगा और पुरुषाद्वैतवादियोंके यहां " दृष्टव्यो ” इत्यादि उपनिषद् के वाक्यसे आत्मामें दर्शन करना, श्रवण करना, अनुमनन करना, और ध्यान करना इन क्रियाओंमें भी यदि प्रवृत्ति नहीं मानी जावेगी तो उन अद्वैतवादियोंका उन दर्शन आदिक में अभ्यास कैसे होगा ? दर्शन आदिके विना वह उनका अभ्यास और किसी फलकी अपेक्षासे भला सफलताका अनुभव कैसे कर सकता है ? जैसे कि मदमत्त या उन्मत्त पुरुषोंके व्यर्थवचन सफल नहीं हैं । उसीके समान उपनिषद् वाक्यों का अभ्यास मी अनर्थक है । दूसरी बात यह है कि सभी प्रकारोंसे अप्रवर्तक हो रही विधि ही तो वाक्या अर्थ होय किन्तु अप्रवर्तक नियोग वाक्यका अर्थ नहीं होय, यह सर्वथा पक्षपात पूर्ण मन्तम्य भला कैसे माना जा सकता है ? अर्थात्-नहीं ।
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पटादिवत् पदार्थांतरत्वेनाप्रतिभासनात् नियुज्यमानविषयनियोक्तृधर्मत्वेन चानवस्थानान्न नियोगो वाक्यार्थ इति चेत् तदितरत्र समानं विधेरपि घटादिवत्पदार्थांतरत्वेनाप्रतिभासनाद्विधाप्यमानविषय विधायक धर्मत्वेन । व्यवस्थितेश्च ।