Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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प्रतापी, महाक्रोधी, प्रभुके निष्फल भी वचननियोगसे प्रजाजनोंकी प्रवृत्ति होना देखा जाता है । अर्थात् — अत्यन्त क्रोधी राजा अन्यायपूर्वक क्रिया करने में यदि प्रजाजनोंको नियुक्त कर देता है, उसके भय से निष्फल नियोग द्वारा मी प्रवृत्ति करनी पडती है, तब तो निष्फल नियोगसे भी प्रवृत्ति होना साथ गया कोई दोष नहीं है । इसपर अद्वैतवादी कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि उत क्रोधी राजा या अधिकारीके निर्देश अनुसार प्रवृत्ति नहीं करनेको निमित्त मानकर उत्पन्न हुये विनाश या अपराध से अपनी चारों ओरसे रक्षा हो जाना ही फल है । प्रचंड राजाके नियोगसे यदि कथमपि प्रवृत्ति नहीं की जावेगी तो मेरी विनाश या मुझको दण्डप्राप्ति अवश्य होवेगी | इस कारण उस अपायके निवारण करनेके लिये प्रवृत्ति कर रहे विचारशील प्रामाणिक पुरुषोंको भी उस प्रेक्षावानूपका कोई विरोध नहीं है। यानी स्वार्थी राजा हमको यदि यों आज्ञा दे दें कि तुमको स्वदेशी वस्तुपर मूल्यसे आधा कर (महसूल) देना पडेगा । पण्डितजी ! तुम्हारी दो हजार से अधिक आय है । अतः तुमको प्रतिवर्ष दो पैसा रुपयाकी गणनासे अवश्य कर ( इन्कमटेक्स ) देना पडेगा । यद्यपि इस आज्ञापालनसे अधिकृत व्यक्तियोंको कोई अभीष्टफलकी प्राप्ति नहीं होती है । कोई पारितोषिक, सुख, पदस्थ नहीं मिल जाता है। फिर भी करको नहीं देनेसे कुरको, कारागृहवास, निंदा आदि अपायोंको भोगना पडता है । अतः वहां भी फल विद्यमान है । अतः वह नियोग सफल है । तब तो हम नियोगवादी कहेंगे कि यों तो नियुक्त पुरुषभाव आत्मक फलसे रहित हो रहे वैदिक वचनसे भी पाप कर्म के परिहारके लिये प्रवृत्ति करो । धर्मशास्त्रका वचन है कि प्रत्यवायोंके त्यागकी अभिलाषासे नित्यकर्म और नैमित्तिक कर्म अवश्य करने चाहिये । " मोक्षार्थी न प्रवर्तेत तत्र काम्यनिषिद्धयोः " किसी लौकिक कामनासे किये गये पुत्र इष्टि, विश्वजित् याग आदि काम्यं कर्म या कलंज भक्षण, शत्रुमारण, आदि निषिद्ध कर्मोंमें मोक्षका अर्थी नहीं प्रवर्तेगा। हां, त्रिकाल संध्या करना, उपासना करना, जप करना, देव, ऋषि, पितरोंके लिये M करना, प्राणायाम करना, आदि नित्यकर्म और मरणीश्राद्ध, ग्रहणश्राद्ध, पौर्णमासी यज्ञ, आदि नैमित्तिक कर्म तो मुमुक्षुको भी करने पडते हैं । इन नित्यकर्म और निमित्तसे होनेवाले कर्मोंको भले प्रकार करनेसे यद्यपि फल कुछ भी नहीं है । किन्तु नहीं करनेवालों के पापका लेप अवश्य हो जाता है । " अकुर्वन् विहितं कर्म प्रत्यवायेन लिप्यते " । जैसे कि राजाकी नियुक्त की 1 गयीं धाराओं ( कानून ) के अनुसार चलनेसे किसी प्रजाजनको पारितोषिक या प्रशंसापत्र ( सर्टिफिकिट ) नहीं मिल जाता है । किन्तु धाराओं के अनुसार नहीं चलनेवालोंको दण्ड अवश्य भोगना पडता है। इसी प्रकार फलरहित वेदवचनसे भी पापपरिहारका उद्देश्य लेकर प्रवृत्ति हो 'जावेगी । इस प्रकार नियोगवादियोंके कहनेपर तो हम विधिवादी कहते हैं कि उपर्युक्त प्रकारसे नियोगको फलरहित माननेपर अब प्राभाकरोंका फलको दिखलानेवाला " स्वर्गकामः " यह वचन भला कैसे व्यवस्थित हो सकेगा ? बताओ । हवन करें, हवन करो, हवन करना चाहिये, इस
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