Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ छोकवार्तिके
अभी विधवादी ही कहे जा रहे हैं कि नियोगवादी यदि यों कहें कि बौद्ध, चार्वाक, आदि दार्शनिकोंका मत तो प्रमाणोंसे बावित है। अतः वे बौद्ध आदिक ही विपर्यय ज्ञानी है । हम प्रभाकर मत अनुयायी तो विपरीतज्ञानी नहीं है। विधियादी कहते हैं कि यह भी नियोग वादियोंका कोरा केवळ पक्षपात है। क्योंकि उन नियोगवादी प्राभाकरोंका मत भी प्रमाणोंसे बाधित हो जाता है। बौद्धों की अपेक्षा प्राभाकरोंमें कोई विशेषता नहीं है। जैसे ही पत्थर चंद्र वैसे ही पाषाण चन्द्र, दोनों एकसे हैं। जिस ही प्रकार सम्पूर्ण अर्थोंको प्रतिक्षण विनाशशीक कहना यह atafat मत प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे विरुद्ध है, ऐसा तुम बौद्धोंके प्रति कह सकते हो, उस ही प्रकार प्राभाकरों के यहां मानी जा रही नियोग उनके विषय नियुज्यमान, नियोक्ता, आदि भेदोंकी कल्पना मी प्रमाणोंसे बाधित है, यों बौद्ध भी तुमसे कह सकते हैं । परमार्थरूपसे विचारा जाय तो सम्पूर्ण प्रमाणोंके द्वारा अद्वैत विधिका विषयपनेसे अवधारण किया जा रहा है। सत्, चित् ब्रह्म एकपनेको हो यथार्थपमा सिद्ध हो रहा है ।
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यदि पुनरप्रवर्तकस्वभावः शखनियोगस्तदा सिद्ध एव तस्य प्रवृत्तिहेतुत्वायोगः ।
अद्वैतवादी ही कहें जा रहे हैं कि द्वितीय पक्षके अनुसार फिर यदि प्राभाकर यों कहें कि शहका अर्थ नियोग तो प्रवर्तक स्वभाववाला नहीं है। तब तो हम विधिवादी कहते हैं कि उस नियोगको प्रवृत्तिके कारणपनका अयोग सिद्ध ही हो गया, यानी नियोग कर्मकाण्डका प्रवर्तक नहीं बन सका ।
फलरहिताद्वा नियोगमात्रान्न प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरप्रेक्षावस्वप्रसंगात् । प्रयोजनमनुद्दिश्य न मंदोपि प्रवर्तत इति प्रसिद्धेश्व । प्रचंडपरिदृढ वचननियोगादफलादपि प्रवर्तनदर्शनाददोष इति चेन, तन्निमित्तापायपरिरक्षणस्य फलत्वात् । तन्नियोगादप्रवर्तने हि ममापायोवश्यं भावीति तन्निवारणाय प्रवर्तमानानां प्रेक्षावतामपि तत्वाविरोधात् तर्हि वेदवचनादपि नियुक्तः प्रत्यवायपरिहाराय प्रवर्ततां " नित्यनैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया " इति वचनात् । कथमिदानीं स्वर्गकाम इति वचनमवतिष्ठते, जुहुयात् जुहोतु होतव्यमिति किडुकोट्तव्यप्रत्ययांतनिर्देशादेव नियोगमात्रप्रतिपत्तेः, तत एव च प्रवृत्तिसंभवात् ।
अद्वैतवादी नियोगके ऊपर दूसरे प्रकारसे विचार चढ़ाते हैं कि वह नियोग फलरहित है ! अथवा फळसहित है ! बताओ । प्रथम पक्ष अनुसार फलरहित सामान्य नियोगसे तो हिताहितको विचारनेवाले प्रामाणिक पुरुषोंकी किसी भी कर्ममें प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। यों तो ऐसे प्रवृत्ति करनेवालेको अविचारपूर्वक कार्य करनेवालेपनका प्रसंग होगा । एक बात यह भी है कि प्रयोजनसिद्धिका उद्देश्य नहीं रखकर तो मंदबुद्धि या आलसी जीव भी नहीं प्रवृत्ति करता है। ऐसी कोकमें प्रसिद्धि हो रही है । इसपर नियोगवादी यों कहें कि तीव्र