Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थलोकवार्तिके
उपेक्षा धारनेमें तत्पर हो रहे संते प्रतिक्षण प्रवृत्ति कर रहे हैं । अर्थात्-वीतराग मुनि या सर्वत्रके कहीं किसी पदार्थमें आकांक्षा तो नहीं है । उनके ज्ञानका साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति और परम्पराफळ तो विषयोंमें रागद्वेषकी नहीं परिणति होनारूप उपेक्षा भाव है । सर्वज्ञका ज्ञान गृहीतग्राही नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञको सभी पदार्थ अपने अपने धर्मोसे सहित होकर भासते हैं । जो पदार्थ भविष्यकालमें होनेवाले हैं, उनको इस समय भावीपनसे अर्थात्-भविष्यमें उपजने वाले हैं, इस प्रकार आनेगा, वर्तमानरूपसे या भूतरूपसे उनको नहीं जानेगा । हां, भविष्य पदार्थोका उत्पत्स्यमानता धर्म अब जाना जा रहा है । उत्पन्नता धर्म इस समय नहीं जाना जा रहा है। किन्तु वह उत्पनता उनकी भवितव्यरूपकरके जान ली गयी है। हो चुकेपनसे नहीं जानी गयी है । तथा उत्तर कालोंमें वह सर्वज्ञ उन धमौके विपरीतपनेसे पदार्थोको जान रहा है। उस समयके वर्तमान पदार्थोको इस समय हो चुकेपनसे जान रहा है और उस समयके भविष्य पदार्थोंको वर्तमान रूपसे जान रहा है । भूत पदार्थोको चिरतरभूत, चिरतमभूतपनेसे जान रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक भूत, वर्तमान, भविष्य, क्षणोंकी विशिष्टताओंके जालसे वस्तु जकड रही हैं। जिस समय जिस धर्मसे विशिष्ट वस्तु होगी, सर्वज्ञके ज्ञानमें वह उसी प्रकार प्रतिमासेगी, दूसरे प्रकारोंसे नहीं । देश, काल, आदिकी विशिष्टता तो पदार्थोके साथ तदात्मक हो रही है । न्यारी नहीं हो सकती है । अतः देश, काल, आदिकी विशिष्टताओंसे सहित पदार्थीको प्रतिक्षण नवीन नबीन ढंगसे जान रहा सर्वज्ञका ज्ञान कथमपि गृहीतग्राही नहीं है। श्री प्रभाचन्द्र स्वामीने प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रन्थमें ऐसा ही समझाया है। इस तस्वके विशेष जिज्ञास विद्वान् वहां देखकर परितृप्ति करें।
प्रमाणसंप्लवे चैवमदोषे प्रत्युपस्थिते । गृहीतग्रहणात् क स्यात् केवलस्याप्रमाणता ॥ ८८॥ ततः सर्वप्रमाणानामपूर्वार्थत्वं सन्नयैः। स्यादकिंचित्करो हेत्वाभासो नैवान्यथार्पणात् ॥ ८९॥
इस प्रकार प्रतिवादी जैनोंके द्वारा एक भी अर्थमें धर्मोकी अपेक्षा विशेष, विशेषांशोंको जाननेवाले बहुत प्रमाणोंकी प्रवृत्ति होनास्वरूप प्रमाणसंप्लवके इस रीतिसे दोषरहित होकर उपस्थित करनेपर भला केवळज्ञानकी गृहीत ग्रहण करनेसे अप्रमाणता कहां हो सकेगी ! तिस कारणसे श्रेष्ठ नयों करके सम्पूर्ण प्रमाणों के अपूर्व अर्थका ग्राहीपना सिद्ध हो चुका है। अतः अकिंचित्कर नामका कोई भी हेत्वाभास नहीं हो सकता है । अर्थात्-शब्दको पहिले जानते हुये भी अब उसका कर्ण इन्द्रियसे ग्रहण होना अनुमान द्वारा जाना जा सकता है। ऐसी दशामें