Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लोकबार्तिके
समर्पणे स्वयं प्रसिद्ध परोपदेशानर्थक्यप्रसंगात् । स्वत एव शब्देन ममेदमभिषेयमिति प्रतिपादनात् ।
शब्द भावनावादी मा यदि यों कहें कि शब्द अपने स्वरूपको भी श्रोत्र शानमें अर्पण कर देता है। इस कारण वह शब्द अपने शब्दभावनास्वरूपका प्रतिपादक हो जायगा। कोई विरोध नहीं आता है । इसपर आचार्य कहते हैं कि तब तो रूप, रस आदिक भी अपने अपने स्वरूपोंके प्रतिपादक हो जावें । क्योंकि चक्षुः, रसमा, आदि इन्द्रियोंसे जन्य ज्ञानमें विषयता सम्बन्धसे रूप, रस, आदिने मी आना स्वरूप अर्पण कर दिया है। स्वकीय बानोंमें अपने स्वरूपका समर्पण कर देनेकी अपेक्षा शब्द और रूप, रस, आदिमें कोई विशेषता नहीं है। यदि माट यों कहें कि शब्द अपने अभिवेय अर्थके प्रतिपादकपनको समर्पण कर देता है। इस कारण शब्द तो अपने स्वरूपका प्रतिपादक है, किन्तु रूप आदिक वैसे नहीं हैं । आचार्य कहते हैं कि माहोंका यह कहना युक्तिशून्य है । क्योंकि शब्दका यदि अभिधेयकी प्रतिपादकताका समर्पण करना स्वयं प्रसिद्ध होता तो परके द्वारा उपदेश देना, व्याख्यान करना, समझा देना आदिके व्यर्थपनका प्रसंग आता है। क्योंकि श्रोताओं के प्रति " मेरा यह प्रतिपाद्य अर्थ है । इस प्रकार शब्दोंकरके स्वतः ही कह दिया गया है । अर्थात्-यों तो संकेतका नहीं ग्रहण करनेवाले मनुष्य तियेच या बालक अथवा गूंगे भी कठिन शास्त्रोंका अर्थ समझ जायेंगे । विद्यालयोंमें पाठकोंकी भावश्यकता नहीं रहेगी।
पुरुषसंकेतबलात्स्वाभिधेयप्रतिपादनव्यापारमात्मनः शन्दो निवेदयतीति चेत्, तर्हि यत्रार्थे संकेतितः शन्दस्तस्यार्थस्य पुरुषाभिप्रेतस्य प्रतिपादकत्वं तस्य व्यापार इति न शब्दव्यापारो भावना । वक्त्रभिप्रायरूढार्थः कथं ? तस्य तथाभिधानात् । तथा च कथमनिष्टोमादिवास्येन भावकेन पुरुषस्य यागविषयप्रवृत्तिलक्षणो व्यापारो भाष्यते पुरुष. व्यापारेण बाधात्वर्थो यजनक्रियालक्षणो धात्वर्थेन फलं स्वर्गाख्यं, यतो भान्यभावफकरणरूपतया व्यंशपरिपूर्णा भावना विभाव्यत इति।
___" इस शद्वका यह अर्थ है" इस प्रकार वृद्ध व्यवहार द्वारा शद्वोंके वाच्यार्थीको समझानेवाले इशारोंको संकेत कहते हैं । शद अपने वाच्यार्थका प्रतिपादन करमारूप अपने ग्यापारको पुरुषके द्वारा किये गये संकेतग्रहणकी शक्तिसे निवेदन कर देता है । इस प्रकार भाट्टोंके कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तब तो जिस अर्थमें शद्वका संकेत ग्रहण हो चुका है, पुरुषके अमिप्रायमें प्राप्त रहे उस अर्यका प्रतिपादकपना उस शद्वका व्यापार हुआ । इस ढंगसे शब्दका व्यापार तो भावना नहीं सिद्ध हो सका है। यदि कोई मट्ट यों कहे कि बक्ताके अभिप्रायमें आरूढ हो रहा अर्थ उस शद्वका कैसे मान लिया जाय ! बताओ। इसका उत्तर यही है कि तिस प्रकार शब्दके द्वारा वह अर्थ कहा जाता है। अतः तिस प्रकार शवभावनाका निराकरण हो जामेसे अग्निष्टोम,