Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
हुमा मप्रधान माना गया है और तिसी प्रकार का यह असत्य विधि है। इस कारण उस विधिको प्रधामपनसे वाक्यका विषय हो जाना सिद्ध नहीं हुआ।
स्यान्मतं न सम्यगवधारित विधेः स्वरूपं भवता तस्यैवमव्यवस्थितत्वात् । प्रतिमासमात्रादि पृथग्विधिः कार्यतया न प्रतीयते घटादिवत प्रेरकतया वा वचनादिवत् । कर्मकरण साधनतया हि तत्पतीतौ कार्यताप्रेरकताप्रत्ययो युक्तो नान्यथा । किं तर्हि द्रष्टव्योऽरेऽयमात्मा श्रोतव्यो अनुमन्तव्यो निदिध्यासितव्य इत्यादि शब्दश्रवणादवस्थातरविलक्षणेन प्रेरितोहमिति जातातेनाकारेण स्वयमात्मैव प्रतिभाति, स एव विधिरित्युच्यते । तस्य ज्ञान विषयतया संबंधमधितिष्ठतीति प्रधानभावविभावनाविधेर्न विहन्यते, तथाविधवेदवाक्यादात्मन एव विधायकतया बुद्धौ प्रतिभासनात् । तदर्शनश्रवणानुमनन· निदिध्यासनरूपस्य विधीयमानतयानुभवात् । तथा च स्वयमात्मानं द्रष्टुं श्रोतुमनुमंतुं निध्यातुं, वा प्रवर्तते, अन्यथा प्रवृस्यसंभवेप्यात्मनः प्रेरितोहमित्यत्र गतिरप्रमाणिका स्यात् । तवो नासत्यो विधिर्यन प्रधानता तस्य विरुध्येत । नापि सत्यत्वे दैतसिद्धिः आत्मस्वरूपध्यतिरेकेण तदभावात् तस्यैकस्यैव तया प्रतिभासनात् इति ।
सम्भव है अद्वैतवादियोंका यह मन्तव्य होय, तदनुसार ये यों कहें कि नाप जैन या मीमासकोंने विधिका स्वरूप मळे प्रकार नहीं समझा है । जैसा आप समझें है, इस प्रकार तो उस विधिको व्यवस्था नहीं हो चुकी है। किन्तु यों है, इसलिये कि प्रतिभास सामान्यसे न्यारी घटादिकके समान कार्यरूपकरके विधि नहीं प्रतीत हो रही है। और वचन, चेष्टा, आदिके समान प्रेरकपनेकरके भी वह विधि. नहीं जानी जारही है। " विधीयते यः स विधिः " " विधीयतेऽनेन स विधिः " जो विधान किया जाय या जिस करके विधान किया जाय इस प्रकार कर्मसाधन या करणसाधनपने करके उस विधिकी प्रतीति होगयी होती, तब तो कार्यपन और प्रेरकपन स्वरूप करके विधिको प्रतीति करना युक्त होता । अन्यथा तो वैसा ज्ञान नहीं होसकता है। तब तो विधिका स्वरूप क्या है। इसके उत्तरमें हम अद्वैत वादियोंकी ओरसे यों समझो कि अरे संसारी जीव यह आरमा दर्शन करने योग्य है, अत्रण करने योग्य है, मनन करने योग्य है, पान करने योग्य है, " ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति" ब्रमको जाननेवाला प्रमस्वरूप ही हो जाता है। " प्रमविदामोलि पर" " नाहं खवयमेवं सम्प्रत्यारमानं जानामि अहमस्मि इति नो इवेमानि भूतानि " " य ारमा अपहतयाभाविजरो विमृत्युः" इत्यादिक शद्रोंके सुननेसे अन्य अवस्था. मोसे विलक्षण होकर उत्पन हुई चेष्टारूप आकार करके में प्रेरा गया हूं। इस प्रकार स्वयं आत्मा ही प्रतिमासता है। और आत्मा ही विधि इस शब्दकरके कहा जाता है। उस विधिका ज्ञान विषयपने