Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्विार्यचिन्तामणिः
इयं त्वन्यैव सर्वार्था साख्यातेषु विद्यते " इति वचनात् । अत्र शदभावना शब्दव्यापारस्तत्र शद्धेन पुरुषव्यापारो भाव्यते, पुरुषव्यापारेण धात्वर्थो, धात्वर्थेन च फलमिति शदभावनावादिनो मतं, तच्च न युज्यते शव्यापारस्य शद्वार्थत्वायोगात् । न अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम इति शद्वात्तव्यापार एवं प्रतिभाति स्वयमेकस्य प्रतिपाद्यप्रतिपादकत्वविरोधात् । प्रतिपादकस्य सिद्धरूपत्वात्मतिपाद्यस्य चासिद्धस्य तथात्वसिद्धेरेकस्य च सकृत्मसिद्धतररूपत्वासंभवाचद्विरोधः ।
आचार्य कह रहे हैं कि तिसी प्रकार भट्टमीमांसकों द्वारा माना गया " वाक्यका अर्थ भावना ही है" इस प्रकारका एकान्त भी विपर्ययज्ञान है। क्योंकि तिस प्रकार वाक्यके वाच्य अर्थ भावनाकी व्यवस्था करानेके लिये भाटोंकी सामर्थ्य नहीं है । बात यह है कि माहोंके यहां शद्ध भावना और अर्थ मावना ये दो प्रकारकी भावना मानी गयी हैं। उनके प्रन्थोंमें उक्ति है कि लिङ्, लोट, तव्य, ये प्रत्ययके अर्थ हो रही भावनासे भिन्न ही शरमावना और अर्थ ( आत्म ) भावनाको कह रहे हैं । हां, यह सम्पूर्ण अर्थोंमें वर्त रही करोत्यर्थरूप अर्थभावना तो शब्दभावनासे मिल ही है जो कि गम्छति, पचति, यजति इत्यादिक सम्पूर्ण तिङन्त आख्यातोंमें विद्यमान है। ऐसी अर्थभावना शबभावनासे भिन्न होनी ही चाहिये । इन दो भावनाओंमें शदभावना तो शद्वका व्यापार स्वरूप पडती है। कारण कि शब्दकरके पुरुषका व्यापार भावित किया जाता है, और पुरुष व्यापार करके यज् पच् आदि धातुओंका अर्थभावनाग्रस्त किया जाता है । तथा धातु अर्यकरके फळ भाबित किया जाता है । यह शदभावनाबादी भाटोंका मत है। किन्तु वह युक्त नहीं है। क्योंकि शब्दके व्यापारको शद्वका अर्थपना घटित नहीं होता है । स्वर्गकी अभिलाषा रखनेवाला अनुष्ठाता अग्निष्टोम करके यज्ञको, इस प्रकारके शबसे उस शब्दका व्यापार ही नहीं प्रतिभासता है । वही शब्द अपने ही व्यापारका प्रतिमातक भला कैसे हो सकता है ! एक ही शद्वको स्वयं प्रतिपायपन और प्रतिपादकपनका विरोध है । यानी शद्वका ही शरीर स्वयं प्रतिपाद्य और स्वयं उस अपने स्वरूपका प्रतिपादक नहीं होता है । जब कि प्रतिपादक शद्धका स्वरूप उच्चारण काळमें प्रथमसे ही बना बनाया सिद्ध है । और भविष्यमें प्रवर्तने योग्य प्रतिपाय विषयका स्वरूप तो तब असिद्ध है । तिस प्रकार प्रतिपादकपन प्रतिपायपनकी व्यवस्था हो जानेसे एक ही पदार्यके एक ही समय प्रसिद्धपन बोर उससे मिन बसिद्धपन स्वरूपका असम्भव हो जानेसे शब्दमें उस प्रतिपाय और प्रतिपादकपनका विरोध है।
शब्दस्वरूपमपि श्रोत्रज्ञानेऽर्पयतीति तस्य प्रतिपादकत्वाविरोधे रूपादयोपि स्वस्थ प्रतिपादकाः संतु पक्षुरादिज्ञाने स्वरूपार्पणाद्विशेषाभावात् । स्वाभिषेय प्रतिपादकत्वसमपणात् प्रतिपादक शब्दो न रूपादय इति चायुक्तिकं, शब्दस्य स्वाभिधेयप्रतिपादकत्व