Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचोकवार्तिके
जाता है। अतः भावना वाक्यका अर्थ है, यह मीमांसकोंका विपर्ययज्ञान है, जो कि आहार्य कुश्वतज्ञान स्वरूप है।
तथा धात्वर्थों वाक्यार्थ इत्येकांतो विपर्ययः शुद्धस्य भावस्वभावतया विधिरूपत्वप्रसंगात् । तदुक्तं । " सन्मात्रं भावलिंगं स्यादसंपृक्तं तु कारकैः । धात्वर्यः केवळः शुद्धो भाव इत्यभिधीयते ॥” इति विधिवाद एव, न च प्रत्ययार्थशून्योर्धात्वर्थः कुतश्चिद्विधिपाक्यात् प्रतीयते तदुपाधेरेव तस्य ततः प्रतीतेः ।
तिसी प्रकार यज, पच, आदि धातुओंका पूजना, पकमा, आदि अर्थ ही वाक्यका अर्थ है। ऐसा एकान्त करना भी विपर्ययज्ञान है । क्योंकि शुद्ध धातुका अर्थ तो भावस्वरूप है, तिसकारण ब्रह्म अद्वैतवादियोंके यहां माने गये विधिरूपपनेका प्रसंग हो जावेगा। विधिको माननेवाले ब्रह्म अद्वैत वादियोंने उसीको अपने ग्रन्थोंमें कहा है कि शुद्ध सत्तामात्र ही भावोंका ज्ञापक चिन्ह है। वह कर्ता, कर्म, आदि कल्पित कारकोंसे मिला हुआ नहीं है । अन्य अर्थोसे और अपने अवान्तर विषयोंसे रहित जो केवळ शुद्ध धातुका अर्थ है, वह भाव ऐसा कहा जाता है । " तां प्रातिपदिकार्थञ्च धात्वर्थ च प्रचक्षते । सा सत्ता सा महानात्मा यामाहुस्त्वतलादयः । " धातु और प्रत्ययोंसे रहित हो रहे अर्थवान् शब्द स्वरूपकी प्रातिपदिकका संज्ञा है विद्वान् जन उस सत्ताको ही प्रातिपदिकका अर्थ और धातुका अर्थ भले प्रकार वखान रहे हैं। वह प्रसिद्ध हो रही सत्ता महान् परब्रह्मस्वरूप है जिसको कि स्ख, तल, अण् आदिक भाव प्रत्यय कह रहे हैं। इस प्रकार धातु अर्थ माननेपर तो विधिवाद ही प्राप्त हो जाता है, हां प्रत्ययके अर्थ संख्या, कारक, इनसे रहित हो रहा वह शुद्ध धातु अर्थ तो किसी भी विधि वाक्यसे प्रतीत नहीं हो रहा है। किन्तु उस प्रत्ययार्थ रूप विशेषणसे सहित हो रहे ही उस धातु अर्थकी उस विधि लिडन्त वाक्यसे प्रतीति हो रही है ।
प्रत्ययार्थस्तत्र प्रतिभासमानोपि न प्रधानं कर्मादिवदन्यत्रापि भावादिति चेत्, सहि पात्वर्थोपि प्रषानं मा भूत् प्रत्ययांतरेपि भावात् प्रकृतपत्ययापायेपीति समानं पश्यामः ।
यदि विधिवादको इष्ट करते हुये शुद्ध धातु अर्थको विधि वाक्यका अर्थ माननेवाले यों कहें कि यद्यपि यहां विधि वाक्यके अर्थमें प्रत्ययका अर्थ प्रतिभास रहा है । फिर भी वह प्रत्ययका अर्थ प्रधान नहीं है । क्योंकि कर्म, करण, आदिके समान अन्य स्थानोंमें भी प्रत्ययार्थ विद्यमान है । अर्थात्-गमि, पचि, पठि आदि धातुओंमें भी विधिलिंङ् या त प्रत्यय वर्त रहा है। स्व, तल्, आदि भाव प्रत्यय भी अन्य अनेक शद्वोंमें संपृक्त हो रहे हैं। शयीत, नश्यात् , भोक्तव्यं, चौर्य, दासता,
आदि शब्द तैसे प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार कहनेपर आचार्य कहते हैं कि तब तो धातुका अर्थ भी वाक्यका प्रधान अर्थ नहीं होवे। क्योंकि प्रकरणप्राप्त प्रत्ययोंके नहीं होनेपर भी वा धातु अर्थ