Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ ठोकवार्तिके
कामी यत्रैव यः कश्चिन्नियोगे सति तत्र सः । विषयारूढमात्मानं मन्यमानः प्रवर्तते ॥ १०६ ॥
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होता है,
जो भी कोई भी जीव जिस ही स्वर्ग आदि विषयमें तीव्र अभिलाषा रखनेवाला FE जी उस कार्य करनेमें नियोग हो जानेपर अपनेको याम आदि विषयोंमें आरूढ मान रहा प्रवर्त हो जाता है। मात्रार्थ - जैसे झूला, मसीनका घोडा आदि यंत्रोंपर आरूढ हो रहा पुरुष तैसे मासे रंगा हुआ प्रवर्त रहा है । उसी प्रकार जिसको जिस विषयकी आसक्ति ( ढगन ) लग रही है, वह जीव उस ही कार्यमें अपनेको रंगा हुआ मानकर प्रवृत्ति करता है । वह नववां विधान है। भोग्यरूपो नियोग इत्यपरः ।
कार्य कर चुकने पर भविष्यमें जो भोग्यस्वरूप हो जाता है, वही वाक्यका अर्थ नियोग है, ऐसा कोई अन्य कह रहा है। लिखा भी है कि:
ममेदं भोग्यमित्येवं भोग्यरूपं प्रतीयते ।
ममत्वेन च विज्ञानं भोक्तर्येव व्यवस्थितम् ॥ १०७ ॥ स्वामित्वेनाभिमानो हि भोक्तुर्यत्र भवेदयं ।
भोग्यं तदेव विज्ञेयं तदेवं स्वं निरुच्यते ॥ १०८ ॥ साध्यरूपतया येन ममेदमिति गम्यते । तत्साध्येन रूपेण भोग्यं स्वं व्यपदिश्यते ।। १०९ ।। सिद्धरूपं हि यद्भोग्यं न नियोगः स तावता । साध्यत्वेनेह भोग्यस्य प्रेरकत्वान्नियोगता ॥ ११० ॥
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किसी उपयोगी वाक्यको सुनकर मुझे यह भोग्य है, इस प्रकार भोग्यस्वरूपकी प्रत हो जाती है । जैसे कि अपराधीको कठोर कारागृहवासकी आज्ञा के वचन सुनकर भोग्यरूपकी प्रतीति हो जाती है। ऐसे ही वेदवाक्यों द्वारा आत्माको स्वकीय भोग्यस्वरूपकी प्रतीति हो जाती वह भोक्ता आत्मामें ही व्यवस्थित हो
है । उस भोग्यस्वरूप में मेरेपने करके जो विज्ञान हो रहा है, रहा है । भोक्ता आत्माका जिस विषय में स्वामीपने करके यह अभिप्राय ( साभिमान ) हो रहा है, अर्थात् — जिसका वह स्वामी है, वही पदार्थ भोग्य समझना चाहिये । यथार्थ में देखा जाय तो वह आमाका स्वरूप ही इस प्रकार स्व शद्वके द्वारा बाध्य किया जाता है। आत्मा अपने स्वभावका