Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिक
तो वह ब्रह्म ही प्रमाण हो गया और उसकी चैतन्यस्वरूप पर्यायें तो " मैं स्वमें नियुक्त हो गया हूं" इस प्रकार कथन करना स्वरूप नियोग प्रमेय हो गया। इस ढंगसे यह प्रमेय तो परप्रमसे न्यारा प्रतीत नहीं हो रहा है । जिससे कि इस प्रमेयरूप दूसरे पक्षमें भी वेदान्तवादियों के मतका प्रवेश नहीं सम्भवे । अर्थात् -नियोगको प्रमेय माननेपर भी प्रभाकरोंको वेदान्तवादियों के गन्तव्य अनुसार ब्रह्म अद्वैतवादी बनना पड़ेगा।
प्रमाणप्रमेयस्वभावो नियोग इति चेत् सिद्धस्तर्हि चिद्विवर्तोसौ प्रमाणरूपवान्यथानुपपत्तेः। तथा च स एव चिदात्मोभयस्वभावतयात्मानमादर्शयन् नियोग इति स एव बमवादः।
नियोगवादी कहते हैं कि प्रत्येक पक्षका ग्रहण करनेपर दोष आते हैं । अतः प्रमाण और प्रमेय दोनों स्वभाववाला नियोग मान लिया जायगा, इसपर भट्ट कहते हैं कि तब तो वह नियोग बहुत अच्छे प्रकारसे चैतन्य परब्रमका परिणाम सिद्ध हो जायगा । अन्यथा यानी परब्रमका विवर्त माने विना नियोगको प्रमाणपना नहीं बन सकेगा। अर्थात् -जो वस्तु प्रमाण प्रमेय उभयरूप है, वह चैतन्यात्मक अवश्य है । और तिस प्रकार होनेपर वह सत्, विद्, आनन्द, स्वरूप आत्मा ही प्रमाणप्रमेय इन उभयस्वभाववाढपने करके अपनेकों सब ओरसे दिखला रहा नियोग स्वरूप हो रहा है। इस प्रकार वही ब्रह्म अद्वैतवादका अनुसरण करना प्रभाकरोंके लिये प्राप्त हो जाता है। ___अनुभयखमायो नियोग इति चेत् तर्हि संवेदनमात्रमेव पारमार्थिकं तस्य कदाचिदहेयत्वात् तथाविधस्व संभवात् सन्मात्रदेहतया निरूपितत्वादिति वेदांतवाद एव ।
चतुर्थ पक्षके अनुसार यदि प्रमाण प्रमेय दोनों स्वभावोंसे रहित नियोग माना जायगा, तवे तो केवल शुद्ध सम्वेदन ही वास्तविक पदार्थ सिद्ध होता है । क्योंकि किसी भी कालमें वह शुद्धसम्बेदन त्यागने योग्य नहीं है । तिस कारण अनुभयमें पडे हुये नका अर्थ पयुर्दास माननेपर तिस प्रकार सर्वदा प्रमाणपन, प्रमेयपन उपाधियोंसे रहित होता हुआ शुद्ध प्रतिमासका ही पकडा जाना सम्मवता है। केवल सत्स्वरूप इतने ही शरीरको धारनेवालेपन करके उस प्रतिमासका ही निरूपण किया गया है । इस प्रकार प्राभाकरोंके यहां वेदान्तवाद ही घुस जाता है । यह अपसिद्धान्त हुमा । सर्वथा प्रतिकूलोंके मतको माननेकी अपेक्षा भाइयोंका मत स्वीकार कर लेना कहीं अच्छा है।
शब्दव्यापारो नियोग इति चेत् भहमतप्रवेशा, शब्दव्यापारस्य शब्दभावनारूपत्वात् ।
यदि प्रभाकरोंका यह मन्तव्य होय कि पांचवें पक्षके अनुसार " अग्निष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत् " स्वर्गप्राप्तिकी अभिलाषा रखनेवाला जीव अग्निष्टोम करके यज्ञ करे, इत्याविक शब्दोंका