Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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बिना ही शुद्ध सन्मात्र विधिकी प्रतीति हो जानेपर तो कार्यपन या प्रेरकपनका ज्ञान करना उचित नहीं पडेगा । अर्थात् — जो किया जाय वह कर्म है (क्रियते इति कर्म) । जैसे घट, पट आदिक और स्वकृत्य में पुरुष जिसकरके प्रेरा जाय वे वचन आदिक प्रेरक करण हैं ( प्रेर्यतेऽनेन इति प्रेरकं ) । किन्तु " विधीयते यत् या विधीयतेऽनेन " इस प्रकार निरुक्ति करके विधि शद्व नहीं साधा गया है । तो वह विधि क्या है ? इसका उत्तर यों है कि अरे मैत्रेय ! यह आत्मा दर्शन करने योग्य है आत्माका दर्शन यों हो जाता है कि पहिले आत्माका वेदवाक्यों द्वारा श्रवण करना चाहिये । तभी ब्रह्मज्ञानमें तत्परता हो सकती है । पुनः श्रुत आत्माका युक्तियोंसे विचार कर अनुमनन करना चाहिये । श्रवण और ममनसे निश्चित किये गये अर्थका मनसे परिचिन्तन करना चाहिये | अथवा " तस्वमसि " प्रसिद्ध पक्ष तू ही है । इत्यादिक वैदिक शोंके श्रवणसे मैं पहिली अदर्शन, अश्रवण आदि की अवस्थाओं की अपेक्षा विलक्षण हो रहीं दूसरी अवस्थाओंकर के इस समय प्रेरित होगया हूँ | इस प्रकार (1 15 अहम् का दर्शन आदिद्वारा प्रत्यक्ष करानेवाली उत्पन्न हुई आकारवाली वेष्टा करके स्वयं आत्मा ही प्रतिमास रहा है वह आत्मा ही तो विधि है । इस प्रकार वेदान्तवादियो कथन किया है । अतः नियोगको प्रमाणरूप माननेपर प्रभाकरको बेदान्तवादी बनना पडेगा, अन्य विरुद्धमतोका आश्रय करलेना मारी निर्बलता है ।
प्रमेयत्वं तर्हि नियोगस्यास्तु प्रमाणत्वे दोषाभिवानात् इति कश्चित् । तदसत् प्रमाणवचनाभावात् । प्रमेयत्वे हि तस्य प्रमाणमन्यद्वाच्यं तदभावे क्वचित्प्रमेयत्वायोगात् । श्रुतिवाक्यं प्रमाणमिति चेन्न तस्याचिदात्मकत्वे प्रमाणत्वाघटनादम्यत्रोपचारात् । संवि tered श्रुतिवाक्यस्य पुरुष एव तदिति स एव प्रमाणं तत्संवेदनविवर्तश्च नियुक्तोहमित्यभिधानरूपी नियोगः प्रमेय इति नायं पुरुषादन्यः प्रतीयते यतो वेदांतवादिमतानुप्रवेशोऽस्मिन्नपि पक्षेन संभवेत् ।
नियोगको प्रमाणपना माननेपर दोषोंका कथन कर दिया गया है। इस कारण नियोगको तब तो प्रमेयपना रहे, इस प्रकार कोई पक्ष के रहा है । उसका वह कथन भी असत्य है । क्योंकि प्रमाणके होनेपर ही उससे जानने योग्य प्रमेयका कथन हो सकता है । किन्तु प्रमाण के वचनका अभाव है । जब कि उस नियोगको प्रमेयपना माना जावेगा तो उसका ग्राहक प्रमाण अन्य तुम प्रभाकरोंको कहना ही चाहिये। क्योंकि उस प्रमाणके बिना किसी भी पदार्थ में प्रमेयपनका योग नहीं हो पाता है । यदि वेदवाक्योंको प्रमाण कहोगे तब तो हम भट्ट कहते हैं कि यह तुम नहीं कह सकते हो। क्योंकि वचन जड होते है । उपचारसे भळे ही वचनोंको प्रमाण कह दिया जाय । उपचारके सिवाय उन बेदवाक्योंको चैतन्य आत्मकपना नहीं होते सन्ते मुख्यरूप से प्रमाणपना नहीं घटित होता है । हां, यदि वेढवाक्योंको चैतन्य आत्मक माना जावेगा, तब तो परब्रह्म ही श्रुतिवाक्य हुआ, इस ढंग से