Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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अनुमान या हेतु कुछ कार्यको करनेवाला कहा जा सकता है। किसी भी पुरुषके प्रतिदिन होनेवाले ज्ञानोंमेंसे बहुभाग ज्ञान तो जानी हुई वस्तु के विशेषाशको ही अधिकतर जानते रहते हैं। हां, बहुत थोडे ज्ञान नवीन नवीन वस्तुओंको जान पाते हैं । बडे बडे कार्यकर्त्ता शिल्पकर्मा या वैज्ञानिकों का भी बहुभाग समय प्रारब्ध कार्यके विशेषांशों के बनाने में ही व्यतीत होता है । सर्वथा नवीन कार्यों के प्रारम्भ करनेके अवसर बहुत थोडे मिळते हैं । यह नियम सभी कार्यों में प्रायः घटित हो जाता है । अतः अकिंचित्कर नामका हेत्वाभास नहीं मानना चाहिये, एक विवक्षासे विचारा जाय तब तो वह प्रत्युत अन्यथा यानी असद्धेतुओं से भिन्न प्रकारका समीचीन हेतु है । उसमें हेतुका कोई भी दोष नहीं सम्भवता है ।
तत्रापि केवलज्ञानं नाप्रमाणं प्रसज्यते । साद्यपर्यवसानस्य तस्यापूर्वार्थतास्थितेः ॥ ९० ॥
अपूर्व अर्थको जाननेवाले उन ज्ञानोंमें केवलज्ञान के अप्रमाण होने का प्रसंग नहीं आता है । क्योंकि ज्ञानावरण कर्मके क्षयसे विवक्षित कालमें उपजे सादि और अनन्तकालतक ठहरनेवाले उस health अपूर्व अर्थका ग्राहकपना व्यवस्थित हो चुका है । भावार्थ-विशेषणोंकी अत्यल्प परावृत्ति हो जाने से उनको जाननेवाले ज्ञानमें अपूर्वार्थता आ जाती है । थोडा विचारो तो सही कि संसार में पूर्व अर्थ कौन समझे जाते हैं ? सभी द्रव्य पूर्वार्थ हैं । किन्तु फिर भी सौन्दर्य, अधिक धनवत्ता, प्रतिमा, विलक्षण तपस्या, अद्भुत वीर्य, विशेष चमत्कार आदि धर्मोको धार लेनेसे यथार्थ अपूर्व अर्थ मान किये जाते हैं। सूक्ष्म विचार करनेपर अत्यन्त छोटे अंशको भी नवीन धारनेपर पदार्थ में पूर्वार्थता आ जाती है । जितनी जहां अपूर्वार्यता सम्भवती है, उसपर सन्तोष करना चाहिये । अन्यथा मक्ष्य अभक्ष्य विचार पतिव्रतापन बचौर्य आदिक लोकव्यवहार सभी भ्रष्ट हो जायेंगे ।
प्रादुर्भूतिक्षणादूर्ध्वं परिणामित्वविच्युतिः । केवलस्यैकरूपत्वादिति चोद्यं न युक्तिमत् ॥ ९१ ॥ परापरेण कालेन संबंधात्परिणामि च । सम्बन्धिपरिणामित्वे ज्ञातृत्वे नैकमेव हि ॥ ९२ ॥
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कोई कुतर्क उठा रहा है कि अपनी उत्पत्ति होनेके क्षणसे ऊपर उत्तरकाळ में केवलज्ञानका परिणामीपना विशेषरूपेण च्युत हो जाता है। क्योंकि केवलज्ञान तो सदा एकरूप ही बना रहेगा । जिन त्रिलोक, त्रिकाळवर्ती पदार्थोंको आज जान रहा है, उन ही को सर्वदा जानता रहेगा | उत्पाद, विनाश और ध्रुवतारूप परिणाम से सहितपना केवलज्ञानमें नहीं घटता है । अब आचार्य
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