Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
कहते हैं कि इस प्रकार किसीकी वितर्कणा करना तो युक्तिसहित नहीं है । क्योंकि उत्तर उत्तरवर्ती aroh साथ सम्बन्ध हो जानेसे उत्पाद और व्ययरूप परिणाम घटित हो जाते हैं । केवलज्ञानकी 1 पूर्व समयवर्त्ती पर्यायका नाश हो जाता है । और उत्तरकालमें नवीन पर्यायकी उत्पत्ति हो जाती
। इस प्रकार सम्बन्धविशिष्ट और परिणामसहितपना हो चुकनेपर केवलज्ञानी ज्ञातापन करके नियमसे वह एक ही है, यह ध्रुवता है । अतः परिणामीपन च्युत नहीं हुआ । प्रतिष्ठित रहा ।
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' एवं व्याख्यातनिःशेषहेत्वाभाससमुद्भवं । ज्ञानं स्वार्थानुमाभासं मिथ्यादृष्टेर्विपर्ययः ॥ ९३ ॥ सर्वमेव विजानीयात् सम्यग्दृष्टेः शुभावहं ।
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इस प्रकार व्याख्यान किये जा चुके सम्पूर्ण हेत्वाभासोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान स्वार्थानुमानरूप मतिज्ञानका आभास है । मिध्यादृष्टि जीवके अनुमानका आभास नामक विपर्ययज्ञान हो जाता है । हां, सम्यग्दृष्टि जीवके समीचीन हेतुओंसे उत्पन्न हुए सभी ज्ञान प्रमाणरूप होते हुये कल्याणकारी हैं, यह बढ़िया समझ लेना चाहिये ।
यथा श्रुतज्ञाने विपर्यासस्तद्वत्संशयोऽनध्यवसायश्च कचिदाहार्यः प्रदर्शितस्तथावग्रहादिस्वार्थानुमानपर्यन्तमतिज्ञानभेदेषु प्रतिपादितविपर्यासवत्संशयोनध्यवसायश्च प्रतिपत्तव्यः । सामान्यतो विपर्ययशब्देन मिथ्याज्ञानसामान्यस्याभिधानात् ।
जिस प्रकार श्रुतज्ञान में आहार्य विपर्यास ग्यारहवीं वार्त्तिकसे सत्रहवीं तक कहा था उसीके समान श्रुतज्ञान में आहार्य संशय और शाहार्ष अनध्यवसाय, भी कहीं कहीं हो रहा अठारहवीं उन्नीसवीं वार्तिकद्वारा भले प्रकार दिखला दिया है । उसी प्रकार अवग्रहको आदि लेकर स्वार्थानुमान पर्यंत मतिज्ञानके भेदों में भी बीसवीं कारिकासे प्रारम्भ कर तिरानबैवीं कारिकातक कहे गये विपर्यास के समान संशय और अनध्यवसाय भी कचित् होते हुये समझ लेने चाहिये । क्योंकि सूत्र में सामान्यरूपसे कहे गये विपर्यय शद्व करके सभी मिथ्याज्ञानोंका सामान्यपनेसे कथन हो जाता है । अर्थात् हां, यह बात कही जा चुकी है कि आहार्यविपर्यय तो श्रुतज्ञानों में ही होते हैं । अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, स्वार्थानुमान, इन मतिज्ञानों में सहज विपर्ययरूप संशय, भ्रान्ति, अनध्यवसाय होते हैं । क्योंकि गृहीत मिथ्यादर्शन के समान जान बूझकर विपरीत जान लेना ऐसे मिध्यादृष्टियों के आहार्यविपर्यय तो कुश्रुतज्ञानों में ही सम्भवते हैं। हिंसा, चोरी, यभिचारको बुरा जानते हुये भी कुगुरु या मिथ्याशास्त्रोंके उपदेश द्वारा मला समझने लग जाते हैं । मिथ्यास्व, कषाय, मिथ्या संस्कार, इन्द्रियलोलुपता, आदि कारणों ने जीवोंकी प्रवृति विपर्ययज्ञानोंकी ओर झुक जाती है । अतः श्रुतज्ञानके आहार्य और सहज दोनों विपर्यय होते हैं