Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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कि यजि, पचि, आदि धातुओंके अर्थ शुद्ध याग, पाक हैं ! स्वर्गकी अभिलाषा रखनेवाला या तृप्तिकी कामना करनेवाला तो धात्वर्थ नहीं है। हां, उस नियोगका विशेषण जो प्रेरकपना यहाँ माना गया है, वह तो प्रत्ययका वाध्य अर्थ नहीं है । इस कारण शुद्ध कार्यमें नियोगपना अभीष्ट किया गया है । यह पहिला प्रकार हुआ ।
परेषां शुद्धा प्रेरणा नियोग इत्याशयः ।
दूसरे मीमांसकों का यह आशय है कि शुद्धप्रेरणा करना ही नियोग है । वह नियोग प्रत्ययका अर्थ है । अनेक जन जो यह मान बैठे हैं कि जाति, व्यक्ति, लिङ्ग तो जिस प्रकृतिसे प्रत्यय किया जाय उस प्रकृतिके अर्थ कहे जाते हैं । और संख्या, कारक ये प्रत्ययके अर्थ हैं । इस मन्तन्यकी अपेक्षा शुद्धप्रेरणाको प्रत्ययका अर्थ मानना चाहिये, वह प्रेरणा जिस धात्वर्थ के साथ लग जायेगी, उस क्रियामें नियुक्तजन प्रवृत्ति करता रहेगा । हमारे प्रन्थोंमें शुद्ध प्रेरणाको प्रत्ययका अर्थ इस श्लोकद्वारा कहा है, सो सुनलो ।
प्रेरणैव नियोगोत्र शुद्धा सर्वत्र गम्यते ।
नाप्रेरितो यतः कश्चिन्नियुक्तं स्वं प्रबुध्यते ॥ ९९ ॥
यहां कर्मकाण्डके प्रकरण में सर्वत्र शुद्ध प्रेरणारूप नियोग ही वाक्यद्वारा जाना जा रहा है। जिस कारण से कि प्रेरणारहित होता हुआ कोई भी प्राणी अपनेको नियुक्त नहीं समझ रहा है । जब कि नियुक्त और प्रेरित समानार्थक हैं तो नियोगका अर्थ शुद्ध प्रेरणा अर्थापत्ति से ज्ञात कर किया जाता है । यह दूसरा नियोग है ।
प्रेरणासहितं कार्य नियोग इति केचिन्मन्यते ।
कोई प्रभाकर मतानुयायी मीमांसक प्रेरणासे सहित हो रहा कार्य ही नियोग है । इस प्रकार मान रहे हैं। उनका प्रन्थवाक्य यों है कि—
ममेदं कार्यमित्येवं ज्ञातं पूर्वं यदा भवेत् ।
स्वसिद्धयै प्रेरकं तत्स्यादन्यथा तन्न सिद्ध्यति ॥
१०० ॥
यह मेरा कर्तव्य कार्य है, इस प्रकार जब पहिले ज्ञात हो जावेगा तभी तो वह वाक्य अपने वाक्य अर्थ यज्ञकर्मकी सिद्धि करानेके लिये श्रोता पुरुषका प्रेरक हो सकेगा । अन्यथा यानी मेरा यह कर्तव्य है, इस प्रकार ज्ञान नहीं होनेपर वह वाक्य प्रेरक सिद्ध नहीं होता है । अतः अकेली प्रेरणा या शुद्धकार्य नियोग नहीं है । किन्तु प्रेरणासे सहित हुआ कार्य नियोग है । यह तीसरा प्रकार हुआ ।