Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तचार्यश्लोकवार्तिके
सति ग्राह्मग्राहकभावादौ संविदद्वैताद्यालम्बनेन तदस श्ववचनलक्षणाद्विपर्ययात्पूर्वोक्ताद्विपरीतत्वेनासति प्रतीत्यारूढे ग्रामग्राहकभावादौ सौत्रान्तिकाद्युपवर्णिते सत्ववचनं विपर्ययः प्रपंचतोऽवबोद्धव्यः ।
प्राह्मग्राहकभाव, कार्यकारणभाव, स्थाप्यस्थापकभाव, सूक्ष्मस्थूक भाव, सामान्यविशेषभाव, आदिक धर्मोके होनेपर भी सम्वेदन अद्वैत, ब्रह्म अद्वैत, शद्ध अद्वैत, आदिका पक्ष प्रहण कर लेनेसे उन प्राप्राहकभाव आदिकी असत्ताको कथन करना इस प्रकार लक्षणवाले पूर्वमें कहे गये विपर्यय ज्ञानसे यह निम्नलिखित आहार्य ज्ञान विपरीत हो करके प्रसिद्ध है । सौत्रान्तिक, बौद्ध, नैयायिक, मीमांसक, जैन आदि विद्वानोंकरके कथन किये गये प्राह्मग्राहकमान, कार्यकारणभाव, बाध्यवाचक भाव, आदि धर्मोके प्रतीतिमें आरूढ नहीं होते सन्ते भी पुनः उनकी सत्ताका कथन करमा विपर्ययज्ञान है । यह परमतकी अपेक्षा कथन है । अद्वैतवादियोंके शास्त्रोंमें असत्को सत् कहनेवाले ज्ञान विपर्ययरूपसे माने गये हैं । अन्य भी दृष्टान्त देकर विस्तारसे असत् में सत्को जाननेवाले ज्ञान विपर्यय समझ लेने चाहिये। यहां भी पूर्वोक्त रचना के समान असत् पदार्थमें पूर्णसे और एकदेशसे संवाद लगाकर दृष्टान्त बना लेने चाहिये । सम्पूर्ण पदार्थ सर्वथा नित्य नहीं हैं। उनको अपने शास्त्रों द्वारा सर्वथा नित्य कहे जाना तथा आत्माका आकाशके समान परम महापरिमाण नहीं होते हुये भी इनको सर्वत्र व्यापक कहनेवाले शास्त्रोंपर श्रद्धान कर वैसा जानना आदि विपर्ययज्ञान है । सुदेव सुगुरुके नहीं होते हुये भी कुदेव और कुगुरुमें सुदेव सुगुरूपमेका निश्चय कर बैठना श्रुतविपर्यय है ।
एवमाहार्ये श्रुतविपर्ययनुपदर्श्य श्रुतसंशयं श्रुतानभ्यवसायं चाहार्य दर्शयति ।
इस प्रकार उक्त प्रन्थद्वारा श्रुतज्ञानके आहार्य हो रहे विपर्ययस्वरूप मिथ्याज्ञानको दिखाकर अब श्रुतज्ञानके आहार्यसंशयको और श्रुतज्ञान के यों ही मन चले होनेवाले आहार्य अमध्यव सायको श्री विद्यानन्द आचार्य दिखलाते हैं, सो सुनिये । "बाघकाळीनोत्पन्नेष्ठाजन्यं ज्ञानमाहार्ये" ।
सति त्रिविप्रकृष्टार्थे संशयः श्रुतिगोचरे । केषांचिद्दृश्यमानेऽपि तत्त्वोपप्लववादिनाम् ॥ १८ ॥ तथानध्यवसायोऽपि केषां चित्सर्ववेदिनि ।
तवे सर्वत्र वाग्गोचराहायों ह्यवगम्यताम् ॥ १९ ॥
देश, काल, स्वभाव इन तीनसे व्यवहित हो रहे अर्थके शासद्वारा विषय किये जानेपर reat द्रयदर्शी विद्वानोंकी आत्मा में प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय किये बाप