Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
साम्य अवस्थारूप प्रकृतिका परिणाम होनेसे ( हेतु ) जैसे कि घट ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार जिन कापिकोंने प्रवान परिणामित्व, उत्पत्तिमत्व आदि हेतु दिये हैं वे हेतु मका asarसिद्ध त्वामास क्यों नहीं हो जायेंगे ! जैन, मीमांसक, नैयायिक, आदि कोई भी प्रतिवादी विचारा ज्ञानको प्रधानका परिणाम या उत्पत्तिमस्त्रकी अचेतनत्व के साथ व्याप्तिको नहीं जान चुका है। हेतुको जाने विना साध्यकी ज्ञप्ति नहीं हो सकती है । इस प्रकार निरूपण कर दिया गया है।
असिद्ध हेत्वाभासके चार भेदोंका
प्रतिज्ञार्थैकदेशस्तु स्वरूपासिद्ध एव नः । शो नाशी विनाशित्वादित्यादि साध्यसन्निभः ॥ ४२ ॥
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जो हेतु प्रतिज्ञार्थका एकदेश होता हुआ असिद्ध हो रहा है । अर्थात्-पक्ष और साध्यके वचनको प्रतिज्ञा कहते हैं। निगमनसे पूर्वका तक प्रतिज्ञा असिद्ध रहती है। यदि कोई असिद्ध प्रतिज्ञा के विषयभूत अर्थके एकदेशपक्ष या साध्यको ही हेतु बना देवे तो वह हेतु प्रतिज्ञार्थ एकदेश असिद्ध हो जाता है । यह दोष तो हम स्याद्वादियों के यहां स्वरूपासिद्ध ही कहा जाता है । किन्तु यह कोई नियत हेत्वाभास नहीं है । पचके सामान्यको धर्मी बनाकर और विशेषको हेतु बना वे पर वह सद्धेतु माना गया है । हो " शब्दो नाशी विनाशित्वात् " " ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्वात् शब्द ( पक्ष ) नाश होनेवाला है ( साध्य ), क्योंकि विनाशशील है ( हेतु ) । ज्ञान ( पक्ष ) प्रमाण है ( साध्य ) प्रमाण होनेसे ( हेतु ), इय़ादिक स्थळेपर साध्योंको हेतु बना लेनेपर तो साध्यसमत्वाभास हैं। " साध्येनाविशिष्टः साधनीयत्वात्साध्यसमः " जो कि स्वरूपासिद्धमें ही गर्भित हो जाते हैं। जब कि शब्द में नाशपना सिद्ध नहीं है तो विनाशित्वपना हेतु शब्दमें स्वयं नहीं रहा । अतः विनाशित्व हेतु स्त्ररूपासिद्ध हेत्वाभास है ।" पचतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन स्वभावो भागासिद्धिः । साध्यव्याप्यतावच्छेदकरहितो देतुः सोपाधिको वा हेतुर्व्याप्यत्वासिद्धः ।
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भागासिद्ध, व्याप्यत्वासिद्ध, व्यर्थविशेषणासिद्ध आदि भेद इन्हीं भेदोंमें गतार्थ हो जाते है । यहांतक असिद्ध हेत्वाभासको कह दिया है । अब विरुद्धहेत्वाभासको कहते हैं ।
यस्साध्यविपरीतार्थो व्यभिचारी सुनिश्चितः । स विरुद्धोऽव बोद्धव्यस्तथैवेष्टविघातकृत् ॥ ४३ ॥ सत्त्वादिः क्षणिकत्वाद यथा स्याद्वादविद्विषां । अनेकान्तात्मकत्वस्य नियमात्तेन साधनात् ॥ ४४ ॥