Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्ययोकवार्तिके
न निर्विकल्पकाध्यक्षादस्तिहेतोर्विनिश्चयः । तत्पृष्ठजाद्विकल्पाचावस्तुगोचरतः क सः ॥ ३६ ॥ अनुमानान्तराद्धेतुनिश्चये चानवस्थितिः। परापरानुमानाना पूर्वपूर्वत्र वृत्तिः ॥ ३७॥
संदिग्धासिद्धको कहकर अब चौथे अज्ञातासिद्धको कहते हैं । यद्यपि हेतु विद्यमान हो रहा है। फिर भी प्रतिवादकेि द्वारा यदि नहीं जाना जा रहा है, ऐसे प्रकरणमें वह हेतु अज्ञातासिद्ध हस्वाभास निर्णीत किया जाता है। जैसे कि बौद्ध आदि विद्वानोंके द्वारा अपने अभीष्ट हो रहे क्षाणीकत्व आदिक साध्यको साधने में प्रयुक्त किये गये सत्व, परिच्छेद्यस्व, आदिक समी हेतु अज्ञातासिद्ध हेस्वाभास है। अथवा सौगतकी अश्वासे वे हेतु सभी हेत्वाभास है। क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्षले तो हेतुका विशेषरूपसे निश्चय होता नहीं है । बौद्धोंके यहां प्रयक्षज्ञान निश्चय इप्तिको नहीं करा सकनेवाला माना गया है। और उस निर्विकल्पक ज्ञान के पश्चात् उत्पन्न हुये विकल्पक ज्ञानसे भी हेतुका निश्चय नहीं हो सकता है। क्योंकि विकल्पकज्ञान वस्तुभूत अर्थको विषय नहीं कर पाता है। ऐसी दशामें बौद्ध प्रतिवादियों को भला नैयायिकोंके सत्त्र आदि हेतुओंका वह निमय कहाँ हुषा ! यदि अन्य अनुमानोंसे हेतुका निश्चय होना माना जावेगा तो बौद्ध अनवस्था दोष उठा देखेंगे। क्योंकि व्याप्ति ग्रहण के लिये अथवा अनुमानमें पडे हुये हेतुओंका निश्चय करनेके लिये उत्तरोतर होनेवाले अनेक अनुमानोंकी पूर्व पूर्वके हेतुओंको जाननेमें धारावाहिनी प्रवृत्ति होवेगी, यह अनवस्था दोष हुआ । अतः जिस हेतुको प्रतिवादी नहीं जान सकता है वह वादीके ऊपर अज्ञातासिद्ध हेत्वाभासका उद्भाबन कर देता है । न्याय करता है कि हेतुका ज्ञान तो प्रतिवादीको अवश्य करा दिया जाय । " पक्षवृत्तिहेतुविषयकवानाभावोऽझातासिद्धिः " ।
ज्ञानं ज्ञानान्तराध्यक्षं वदतोनेन दर्शितः ।
सों हेतुरविज्ञातोऽनवस्थानाविशेषतः ॥ ३८ ॥ . नैयायिक कहते हैं " आत्मसमवेतानन्तरज्ञानप्राह्यमर्थ ज्ञानं " वात्मामें समवाय सबन्धसे उत्पन्न हुये अव्यवहित उत्तर कालवी ज्ञानके द्वारा पूर्वक्षणवर्ती अर्थ ज्ञानको जानकिया जाता है। "ज्ञान हानानन्तरवेद्यं प्रमेयत्वाद घटवत् " । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार पूर्वज्ञानका अन्य ज्ञानके द्वारा प्रत्यक्ष हो जाना कहनेवाले नैयायिकका हेतु मी मातासिद्ध है, यह इस उक्त कथन करके दिखला दिया गया है । क्योंकि पक्षमें पडे हुरे ज्ञानको जानने के लिये और तस्वरूप मान