Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वाचिन्तामणिः
पोका सद्भाव होते दुर भी बौद्धवादियों के यहाँ उन त्रिविप्रकृष्ट लयोंमें जो संशय शान हो रहा है, यह बाहार्य संशयज्ञानरूप श्रुतज्ञान है । तथा किन्हीं तत्वोपप्लववादी विद्वानों के यहां प्रत्यक्ष ज्ञानद्वारा देखे जा रहे पृथ्वी, जल, आदि पदार्थोंमें भी तत्वोंके उपप्लव ( अव्यवस्थित ) बादका बांग्रह जम जानेसे शास्त्रोद्वारा संशयबान करा दिया जाता है। अर्थात्-बौद्ध विद्वान् त्रिविप्रकृष्ट पदायोंके सद्भाव का निर्णय नहीं करते हैं। तथा अपने शास्त्रोंद्वारा सुमेरु, स्वयम्भूरमण, राम, रावण, परमाणु, बाकाश, आदि पदार्थोंका सर्वथा निषेध भी नहीं करते हैं। अदृष्ट पदार्थों में एकान्तरूपसे संशय शानको करा रहे हैं, " एकांतनिर्णयात् वर संशयः " । हार जाना, अपमान हो जाना, अनुत्तीर्ण होना, इत्यादिक कार्योंमें एकांतनिर्णयसे संशय बना रहना कहीं अच्छा है", इस नीतिके अनुसार संशयवादी बौद्धोंने त्रिविप्रकृष्ठ अर्थमें अपने शाखों के अनुसार संशय ज्ञान कर लिया है। और तस्योपप्लववादियोंने स्वकीयशासजन्य मिथ्यावासनाद्वारा प्रत्यक्ष योग्य पदार्थों में भी संशयज्ञान ठान लिया है। तिसी प्रकार किन्ही विद्वानों के यहां सर्व तत्वके विषयमें संशयज्ञान और अनध्यवसाय धान भी हो रहा है । " सर्वज्ञ है या नहीं" इस विषयका अमीतक उनको शास्त्रों में संशय रखना ही उपदिष्ट किया है। कोई कोई तो सर्वज्ञका बहानसरीखा अनध्यवसायज्ञान होना अपने शास्त्रोंमें मान बैठे हैं । नास्तिकवादी या विभ्रमकान्तवादी तो सभी तत्वोंमें अनध्यवसाय नामका मिथ्याज्ञान किये बैठे हैं। उक्त कहे गये सभी श्रुतज्ञान के संशय, विपर्यय, अनध्यवसायोंमें पचनके द्वारा विषय हो रहा । आहार्यज्ञान कहा गया है, यह समझ लेना चाहिये । क्योंकि वक्ता या शास्त्र ही शब्दों द्वारा को जाने योग्य श्रुतज्ञानको मिथ्याज्ञानियों के प्रति चलाकर उपदिष्ट कर सकता है। लिखित पा उक्त पचनोंके बिना प्राधाकाळमें हुई इछाप्ते उत्पन होनेवाला आहार्यज्ञान बन नहीं सकता है। . श्रुतविषये देशकालस्वभावविप्रकष्टऽर्थे संशयः सौगतानामहश्यसंशयैकान्तवादावबम्बनादाहार्योऽवसेयः । पृथिव्यादौ श्यमानेऽपि संशया केषांचित्तखोपप्लववादावष्टंमात् । सर्ववेदिनि पुनः संशयोऽनध्यबसायश्च केषांचिद्विपर्ययवादाहार्योऽवगम्यताम् सर्वज्ञामावबादावलेपारसर्वत्र पा तरखे केषांचिदन्योऽनध्यवसायः। संशयविपर्ययवत् "तर्कोऽप्रतिष्ठः भुतयोविभिना नासौ मुनिर्यस्य वचः प्रमाणं । धर्मस्य तवं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः" इति प्रलापमानाश्रयणात् । तथा पलापिनां स्वोक्तामविष्ठानात् तत्पतिष्ठाने पा तथा वचनविरोधादित्युक्तपायं।
सर्वशोक श्रुतद्वारा विषय किये गये देशम्यवहित, कालव्यवहित, और स्वमावष्यवहित अोंमें बौद्ध जनोंको अदृश्य हो रहे पदार्यमें संशय होनेके एकान्तवादका- पक्ष प्रहण कर लेनेसे बाहार्य श्रुतसंशय हो रहा समझ लेना चाहिये । तथा परिदृश्यमान मी पृथ्वी आदि तत्वोंमें किन्हीं किन्ही विद्वानों के यहां तस्योपपप्लववादका कदाग्रह हो जानेसे संशयवान बन बैठता है । फिर प्रमाण सिद्ध सहमें किन्हीं मीमांसकों के एकदेशी पण्डितोंके यहां सर्वज्ञामावको कहनेवाळे पक्षका गाढ लेप