Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्यश्लोकवार्तिके
हो जानेसे विपर्यय ज्ञानके समान संशय और अनव्यवसाय अज्ञान भी आहार्य हो रहे जान लेने चाहिये । अथवा " सर्ववेदिनि तत्रे " का अर्थ सर्वज्ञ नहीं कर ज्ञानके द्वारा जाने जा रहे सम्पूर्ण इस प्रकार अर्थ करनेपर यों व्याख्यान कर देना कि सम्पूर्ण जीव, पुद्गल आदि तरत्रोंके प्रमाणसिद्ध होनेपर किन्हीं लोकायतिक या तीव्र मिध्यादृष्टि के यहां इस वक्ष्यमाण कोरे प्रलाप (बकबाद) का मात्र आसरा के लेनेसे संशय और विपर्ययके समान अन्य अनध्यवसाय ज्ञान भी सम्पूर्ण तत्वों के विषयमें उपज जाता है । वह मूर्ख अत्रार्मिक, नास्तिक, जनोंका निरर्थक वचन इस प्रकार है कि तर्कशास्त्र या अनुमान कोई सुव्यवस्थित नहीं है, जिससे कि तरत्रोंका निर्णय किया जाय । नित्यपन अनित्यपन आदिके समर्थन करनेके लिये दिये गये कापिक, बौद्ध आदिके अनुमानोंका परस्पर में विरोध है । वेदकी श्रुतियां भी परस्परविरुद्ध हिंसा, अहिंसा, सर्वज्ञ, सर्वज्ञाभाव, विधि, नियोग, भावना आदि विभिन्न अर्थोको कह रहीं हैं। कोई बौद्ध (बुद्ध) कणाद, कपिल, अथवा जिनेन्द्र आदिक ऐसा मुनि नहीं हुआ, जिसके कि वचन प्रमाण मान किये जांय । धर्मका तत्व अंधेरी गुफा में छिपा हुआ रखा है। अतः बडे बडे महान् पुरुष जिस मार्गसे जा चुके हैं वही मार्ग है । महाभारत प्रन्थ में वेदव्यासजीने " कः पन्थाः इस प्रकार राक्षसके जल पी लेने की शर्तमें प्रश्न करनेपर युधिष्ठिर के द्वारा " तर्कोऽप्रतिष्ठः " यह श्लोक कहवाया है। चार्वाक सिद्धान्त अनुसार तिस प्रकार प्रलाप करनेवालों के यहां अपने द्वारा कहे गये तत्रकी मी प्रतिष्ठा नहीं हो पाती है । या फिर भी अपने अभीष्ट हो रहे उन पृथ्वी, आदिक दृश्य तस्त्रोंको ही मानना परलोक, आमा, पुण्य, पाप, आदिको नहीं मानना इस सिद्धान्तकी प्रतिष्ठा करोगे जो कि तर्क, शात्र : (बृहस्पति सूत्र ) बृहस्पति, लौकिक धर्म, लोकप्रसिद्धव्याप्तिके मान लेनेपर ही पुष्ट होता है । तब तो तिस प्रकार के तर्कनिषेध, शास्त्रनिषेध, आप्तमुनिनिषेध, और धर्मकी प्रच्छमता, इस अपने बचनका विरोध हो जायगा, इस बातको हम प्रायः अनेक बार कह चुके हैं। यहाँ यह कहना है कि नास्तिकवादकी ओर झुकानेवाले उक्त प्रलापमात्रका अवग्रम्ब लेकर कोई कोई पुरुष जीव, अजीब, स्वर्ग, पुण्य, पाप, तपस्या, मोक्ष, आदि तत्वों में आहार्य श्रुत अनध्यवसाय नामक ज्ञानको चलाकर उत्पन्न कर लेते हैं, जैसे कि आहार्यसंशय और विपर्ययस्वरूप कुश्रुतज्ञान प्रसिद्ध है।
"
सम्प्रति मतिज्ञान विपर्यय सहजमावेदयति ।
१००
श्रुत अज्ञानके बलात्कारसे चलाकर इच्छापूर्वक होनेवाले विपर्यय, संशय, और अनध्यव सायको उदाहरणपूर्वक दिखाकर अत्र वर्तमानमें मतिज्ञानके परोपदेश विना ही स्वतः होनेवाले सहज विपर्ययका स्पष्टज्ञान आचार्य महाराज कराते हैं, सो समझियेगा ।
बह्नाद्यवग्रहाद्यष्टचत्वारिंशत्सु वित्तिषु ।
कुतश्चिन्मतिभेदेषु सहजः स्याद्विपर्ययः ॥ २० ॥