Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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बहु, अबदु आदि बारह विषयभेदों को जाननेवाले अवग्रह, ईहा, आदि चार ज्ञानोंकी अपेक्षा से हुयी अडताळीस मतिज्ञानकी मेदस्वरूप बुद्धियोंमें किसी भी कारण से निसर्गजन्य विपर्यय ज्ञान हो जाता है । जैसे कि आंखके पलकमें थोडी अंगुली गाढकर देखनेसे एक चन्द्रमाके दो चन्द्रमा दीखने लग जाते हैं। डेरी हथेलीपर चनाके बराबर गोलीको रखकर सीधे हाथकी तर्जनीपर मध्यमा अंगुली को चढाकर दोनों अंगुलियोंके पोटराओं के अप्रभागसे गोलीको घुमानेपर स्पार्शन प्रत्यक्षद्वारा एक गोळीकी दो गोलियां जानी जाती हैं । चाकचक्य, कामल, भ्रमीके वश होकर नेत्रों द्वारा सीपमें चांदीका ज्ञान, शुक्ल पदार्थको पीछा समझना, स्थिर पदार्थोंका घूमते हुये दर्शन होना आदिक सहज कुमतिज्ञान हैं । परोपदेश के अतिरिक्त अन्य कारणोंसे उपज जाना "निसर्गज" कहलाता है । यों कारण के विना तो कोई भी कार्य नहीं हो पाता है । सहज और आहार्य शत्रू अन्य दर्शनों में प्रसिद्ध हैं ।
स्मृतानुभूतार्थे स्मृतिसाधर्म्य साधनः । संज्ञायामेकताज्ञानं सादृश्ये स्थूलदर्शिनः ॥
२१ ॥
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सूत्रकारने स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता ( व्याप्तिज्ञान ) और स्वार्थानुमान भी मतिज्ञानके प्रकार बतलाये हैं । अतः स्मृति आदिकों का भी सहज विपर्ययज्ञान इस प्रकार समझ लेना कि पहिले कालों में नहीं अनुभव किये जा चुके अर्थ में स्मरण किये गये पदार्थ के समानधर्मपनेको कारण मानकर स्मृति हो जाना, स्मरणज्ञानका सइजविपर्यय है । जैसे कि अनुभव किये गये देवदचके समान धर्मवाळे होनेके कारण जिनदत्तमें देवदत्तकी स्मृति कर बैठना सहज कुस्मृतिज्ञानहै । और संज्ञास्वरूप प्रत्यभिज्ञानमें यों समझिये कि स्थूलदृष्टिवाले पुरुषको सदृशता होनेपर एकताका ज्ञान हो जाना प्रत्यभिज्ञानका सहजविपर्यय है । जैसे कि समान आकृतिवाले दो माइयोंमेंसे इन्द्रदत्तके सदृश जिनचन्द्रमें " यह वही इन्द्रदत्त है " इस प्रकार एकत्व प्रत्यभिज्ञान हो, जाता है, यह एकत्वप्रत्यभिज्ञानका सहजविपर्यय है ।
तथैकत्वेऽपि सादृश्यविज्ञानं कस्यचिद्भवेत् ।
सविसंवादतः सिद्धचिंतायां लिङ्गलिङ्गिनोः ॥ २२ ॥
Saur ghanted हुये भी किसी मिथ्याज्ञानी जीवके सदृशपनेको जाननेवाला प्रत्यभिज्ञान हो जाय वह सादृश्यप्रत्यभिज्ञानका विपर्यय है। जैसे कि उसी इन्द्रदत्तको इन्द्रदत्तके सदृश जिनचन्द्र समझ लेना । यों भ्रान्तिज्ञान हो जानेके अनेक कारण हैं। उनके द्वारा उक्त विपर्ययज्ञान उपज जाते हैं । तथा साधन और साध्य के सम्बन्ध में बाधासहितन या निष्फलप्रवृत्तिका जनकपन रूप विसम्बाद हो जानेसे तर्कज्ञानमें वह विपर्ययज्ञान हो जाना प्रसिद्ध है। जैसे कि गर्भमें स्थित हो